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________________ ३६ संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन शाकटायनो नरुक्तसमयश्च' ( निरुक्त १।१२ )। सभी नाम ( संज्ञा शब्द ) आख्यात से उत्पन्न होते हैं, यह शाकटायन तथा निरुक्तकारों का सिद्धान्त है। इसी तथ्य का निर्देश जब पतञ्जलि को करना पड़ता है तब वे 'नाम च धातुजमाह निरुक्ते' (भाष्य ३।३।१ ) कहते हुए आख्यात के स्थान पर धातु का प्रयोग करते हैं। इसी प्रकार अग्नि शब्द के निर्वचन में शाकपूणि के मत का उल्लेख करते हुए यास्क धातु तथा आख्यात को पर्याय रूप में लेते हैं—'त्रिभ्य आख्यातेभ्यो जायते इति शाकपूणिः' (निरुक्त ७।१४)। ये सभी यास्क के द्वारा उद्धृत पूर्वाचार्यों के प्रयोग हैं। स्वयं यास्क आख्यात का प्रयोग पूर्ण क्रिया ( तिङन्त ) के रूप में करते हैं-'प्रथमपुरुषश्चाख्यातस्य' ( नि० ७।१ ) अर्थात् तीन प्रकार की ऋचाओं में परोक्षकृत ऋचाएँ वे हैं जिनमें आख्यात ( क्रिया ) प्रथमपुरुष में होता है तथा जिनमें 'नाम' की सभी विभक्तियां लगायी जाती हैं । निरुक्त के आरम्भ में आख्यात का लक्षण करते हुए भी यास्क को सामान्यरूप से क्रिया का ही ध्यान रहता है, धातु का नहीं ( भावप्रधानमाख्यातम् ) । क्रिया इन सभी रूपों का-धातु, तिङन्त तथा कृदन्त का-सामान्य नाम है, क्योंकि इन सबों में धातु का अर्थ प्रकट होता है । यही कारण है कि सामान्य रूप से क्रिया को धात्वर्थ कहते हैं।' फल तथा व्यापार के रूप में धातु का अर्थ धात्वर्थ या क्रिया के ऐतिहासिक विवेचन के पूर्व हम व्याकरण के सिद्धान्त रूप में प्रतिष्ठित क्रिया का विश्लेषण करें, जिसकी पृष्ठभमि के रूप में क्रिया-विषयक विभिन्न मत हैं । क्रिया चूंकि परिवर्तन की प्रक्रिया है अतः इसके कई खण्ड या अवस्था-विशेष हैं । 'पचति' एक क्रिया है, जिसके अन्तर्गत कई अवान्तर व्यापार होते हैं। जैसेआग सुलगाना, उस पर बर्तन रखना, बर्तन में पानी देना, चावल धोना, बर्तन में चावल छोड़ना, चूल्हे के पास बैठना, चावल को चलाना इत्यादि। इन सभी व्यापारों के संचालन के समय ‘पचति' क्रिया का व्यवहार होता है-किं करोति ? पचति । यहाँ तक कि उस स्थान पर बैठना भी 'पचति' क्रिया का ही अंग है। इन सभी व्यापारों का अन्तिम परिणाम क्या होगा? हम देखते हैं कि अन्त में चावल कोमल हो जायेंगे । इस पूर्वापरीभूत के क्रम से होने वाली क्रिया के अवान्तर व्यापार तब तक चलते रहते हैं जब तक अन्तिम परिणाम न निकल जाय । इसीलिए क्रिया में परिणामोन्मुख व्यापार का बोध होता है। क्रिया न केवल अन्तिम परिणाम ( फल ) को ही कहते हैं, क्योंकि ऐसा करने पर क्रिया घटनामात्र बनकर रह जायेगी तथा अन्य पदार्थों के समान यह स्थिर हो जायेगी। इसी प्रकार न केवल व्यापार को ही क्रिया कह सकते हैं, क्योंकि फल के बिना कोई क्रिया सम्भव ही नहीं-केवल विभिन्न प्रक्रियाओं या गतियों काही बोध होता रहेगा, किसी निश्चित परिणाम का नहीं। 'पचति' न केवल चूल्हा जलाना आदि व्यापारों का बोधक है और न ही केवल फल १. द्रष्टव्य-ल० म०, पृ० ५४४ ।
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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