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________________ ३८ संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन करते हुए पतञ्जलि 'क्रियावचनो धातुः' इस वार्तिक का उद्धरण देते हैं, जिसके अनुसार क्रिया के बोधक शब्द को धातु कहते हैं । क्रिया, ईहा, चेष्टा या व्यापारये समानार्थक शब्द हैं । क्रिया पिण्ड-रूप में प्रत्यक्षप्रमाण के द्वारा निर्दिष्ट नहीं की जा सकती, क्रिया का अनुमान ही हो सकता है। अनुमान का स्वरूप यह है कि सभी साधनों के प्रस्तुत रहने पर ( ईन्धन, अग्नि, पात्र, जल, रसोइया इत्यादि के होने पर ) भी जिसकी अनुपस्थिति के कारण ‘पचति' का प्रयोग नहीं किया जा सकता तथा इनके रहने पर जिसकी उपस्थिति में 'पचति' का प्रयोग हो सकता है-वही चेष्टा या व्यापार-क्रिया है। इस प्रकार उस अनुमानगम्य क्रिया के कारण ही 'पचति' का प्रयोग सम्भव या असम्भव होता है । यह क्रिया ही है जिसके कारण देवदत्त अभी इस स्थान पर है और कुछ समय के बाद पाटलिपुत्र में मिलता है। यदि क्रिया नहीं होती तो एक ही वस्तु का दो स्थानों में पाया जाना अनुपपन्न हो जाता। इस प्रकार क्रिया का सामान्य लक्षण है कि इसका प्रयोग 'करोति' के समान स्थानों में होता है ( करोतिना सामानाधिकरण्यम् ) । जैसे—किं करोति ? पचति । किं करिष्यति ? पक्ष्यति इत्यादि । सामान्यतया सभी क्रियाएँ 'करोति' के साथ सम्बन्ध रखती हैं । इससे निष्कर्ष निकलता है कि क्रिया मुख्यतया व्यापार के अर्थ में ही होती है । किन्तु कुछ क्रियाओं के साथ उपर्युक्त 'करोति' अर्थात् व्यापार का प्रयोग नहीं हो सकता; जैसे-अस्ति, भवति, वर्तते, वियते इत्यादि । क्या ये क्रियाएँ नहीं हैं ? यदि हैं तो 'करोति' के समानाधिकरण नहीं हैं; क्योंकि 'किं करोति' के उत्तर में कोई भी 'अस्ति' नहीं कहता । दूसरी बात यह है कि इनमें किसी प्रकार के व्यापार का बोध नहीं होता। होना और करना दो भिन्न स्थितियों के धातु हैं । 'अस्ति' काल-निरपेक्ष सत्ताबोधक तथा निष्क्रिय स्थिति की क्रिया है, जब कि 'करोति' काल-सापेक्ष तथा व्यापारबोधक क्रिया है । अतएव इन 'अस्' आदि धातुओं को अन्तर्भूत करने के लिए धातु-लक्षण को बदलना पड़ेगा। इस पर पतञ्जलि दूसरे वार्तिक का उद्धरण देते हैं-'भाववचनो धातुः । इसका अर्थ है कि भाव या सत्तामात्र के बोधक शब्द को धातु कहते हैं । सत्ता से हमें किसी फल की सत्ता का बोध होता है। इसीलिए फल विधिमूलक हो या निषेधमूलक हो-उसकी सत्ता धातु में रहती ही है। कुछ क्रियाओं के निषेधरूप फल दिखलायी पड़ते हैं, जैसे-नश्यति । नाश का अर्थ है-किसी का अदृश्य हो जाना । यह अदृश्यता भी किसी-न-किसी क्रिया का ही फल है । 'अस्ति', 'भवति' इत्यादि क्रियाओं का इसके विपरीत विध्यात्मक फल है। वह है-सत्ता या स्वरूप-धारण । जब हम कहते हैं-'घटोऽस्ति' तो इसका यही अर्थ होता है कि घट १. महाभाष्य, भाग २, पृ० ११४ । २. 'इह सर्वेषु साधनेषु सन्निहितेषु कदाचित्पचतीत्येतद् भवति, कदाचिन्न भवति । यस्मिन्सन्निहिते पचतीत्येतद् भवति सा नूनं क्रिया । अथवा, यया देवदत्त इह भूत्वा पाटलिपुत्रे भवति, सा नूनं क्रिया' । -वही, भाग २, पृष्ठ ११५
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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