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________________ २८४ संस्कृत-व्याकरण में कारक तस्वानुशीलन लिए किसी निभृत स्थान में अवस्थित रहना । धात्वर्थ में प्रयुक्त दर्शन व्यापार का कर्ता ही यहाँ अपादान है और उसी से अदर्शन के लिए निवृत्त होना धातु का अर्थ है । अतः शाब्दबोध में मातृ-प्रभृति शब्दों का अपादान के रूप में अन्वय होगा - यह भाष्यकार का भी मत है । दर्शन व्यापार के प्रति 'माता' कर्ता है, यह ज्ञान प्रत्यासत्ति ( सम्बन्ध ) से प्राप्त होता है । (५) आख्यातोपयोगे ( १/४/२९ ) - आख्याता प्रतिपादन करने वाला । उपयोग = नियमपूर्वक विद्या- ग्रहण करना। छात्र की ओर से जब विद्याग्रहण की प्रवृत्ति प्रदर्शित होती है तभी नियम की सार्थकता है । अत: जब नियमपूर्वक विद्या- स्वीकार साध्य हो, ऐसी क्रिया चल रही हो तब आख्याता को अपादान कारक कहते हैं । जैसे – 'उपाध्यायादधीते' । यहाँ छात्र के द्वारा नियमपूर्वक विद्याग्रहण का अर्थ तो है ही, ग्रहण - क्रिया साध्य अर्थात् उद्देश्य के रूप में भी विवक्षित है । ग्रन्थ के शब्दों तथा अर्थों के धारणार्थ जो ग्रहण किया जाता वास्तव में वही उपयोग है । यदि उपयोग नहीं होता हो तो 'नटस्य गाथां शृणोति' की तरह अपादान की प्राप्ति नहीं होगी । यहाँ कात्यायन प्रश्न करते हैं कि अनुपयोग की स्थिति में यह आख्याता कारक रहेगा या अकारक ? ( १ ) यदि कारक रहता है तो अकथित रहने से कर्मत्व प्रसक्त होगा । ( २ ) यदि वह अकारक रहता है तो उपयोग-शब्द निरर्थक हो जायगा, क्योंकि कारकत्वाभाव कह देने से ही 'नटस्य' में अपादानत्व की अप्राप्ति हो जायगी । उपयोग के अभाव में अपादान - निवारण का प्रश्न ही नहीं उठेगा । भाष्यकार कर्मसंज्ञा की प्रसक्ति का प्रत्याख्यान करते हैं कि अकथित कर्म के धातु परिगणित हैं । यदुच्छा से अकथित व्यपदेश नहीं होता । फल यह हुआ कि अनुपयोग की स्थिति में 'नटस्य ' ( गाथां ) शृणोति' यह प्रयोग निर्भ्रान्त है । पतञ्जलि यहाँ भी बौद्ध अपाय की उपपत्ति करते हैं कि उपाध्याय से अध्ययन . के वाक्य अलग ( अपक्रान्त ) होते हैं । अब प्रश्न होता है कि वृक्ष से फल के अपाय के समान यहाँ भी उपाध्याय से वाक्यों का आत्यन्तिक अपाय क्यों नहीं होता ? बात यह है कि उपाध्याय के मुख से शब्दों के रूप में विचार सतत प्रवाहित होते हैं । शब्द- व्यंजक ध्वनियाँ आचार्य के मुख से पुन: पुन: उत्पन्न होती हैं । वे भिन्नरूप होने पर भी सादृश्य के कारण तत्त्वतः पहचान ली जाती हैं तथा श्रोता के श्रोत्रप्रदेश में पुन: पुन: ( अविरल गति से ) जाकर व्यक्तिस्फोट के रूप में शब्द का अभिव्यञ्जन करती हैं । एक दूसरा उत्तर भी हो सकता है कि ज्ञान ज्योति के सदृश होते हैं । जैसे ज्वाला के रूप में अविच्छिन्न उत्पन्न होनेवाली ज्योति सादृश्य के कारण सतत प्रतीत होती है उसी प्रकार आचार्य के विभिन्न ज्ञान भी भिन्नरूप शब्दों में निकलते हुए भी सतत प्रतीत होते हैं । इसलिए आत्यन्तिक अपाय की समस्या नहीं उठती, क्योंकि यहाँ धाराप्रवाह न्याय से अपाय होता है । इस स्थल पर कैयट तथा नागेश दोनों ने ही अपनी टीकाओं में दार्शनिक चिन्तन तथा पाण्डित्य का प्रकर्ष प्रदर्शित किया है । लघुमञ्जूषा में नागेश ' अधीते' क्रिया का अर्थ करते हैं—उच्चारण के अनन्तर =
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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