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________________ अपादान-कारक २८५ होनेवाला नियमपूर्वक ग्रन्थस्वीकार के अनुकूल व्यापार । उच्चारण का आश्रय यहाँ अपादान है । अर्थ होता है कि वह ( शिष्य ) उपाध्याय के मुख से निकलते हुए ग्रन्थ का अध्ययन करता है। यहाँ 'नटस्य शृणोति' के रूप में जो अतिप्रसंग होता है उसे अनभिधान ( विद्वानों की अस्वीकृति ) का आश्रय लेकर दूर किया जा सकता है। ( उद्योत २, पृ० २५४) (६) जनिकः प्रकृतिः (१।४।३० )- जनि = उत्पत्ति ( जन् + इण् )। जनेः कर्ता =जनिकर्ता ( षष्ठीतत्पुरुष ) । इसका अर्थ है जायमान पदार्थ, क्योंकि वही जननक्रिया का कर्ता है। जन्म लेने वाले पदार्थ की प्रकृति को अपादान कहते हैं; यथा'गोमयात् वृश्चिको जायते, ब्रह्मणः प्रजाः प्रजायन्ते, पुत्रात्प्रमोदो जायते' । पतञ्जलि यहाँ भी प्रकृति से तत्तत् पदार्थों के अपक्रमण के कारण अपाय मानते हैं। साथ ही आत्यन्तिक अपाय नहीं होने का कारण वे सातत्य अथवा विभिन्न रूपों में होनेवाले प्रादुर्भाव को समझते हैं। प्रकृति-शब्द का अर्थ विवादास्पद रहता है। एक ओर काशिकाकार, भट्टोजिदीक्षित तथा गदाधर इसे कारणमात्र के अर्थ में लेते हैं, जब कि दूसरी ओर भाष्यकार, कैयट तथा नागेश इसे केवल उपादान-कारण के अर्थ में स्वीकार करते हैं। 'ब्रह्मणः प्रजाः प्रजायन्ते' उभयनिष्ठ उदाहरण है। सामान्यतया हिरण्यगर्भ ( ब्रह्मा ) सृष्टि का हेतु है, उपादान नहीं। किन्तु अद्वैतवेदान्त के अनुसार मायारूप उपाधि से युक्त ( उपहित ) चैतन्य ब्रह्म है, जो समस्त कार्यों का उपादान है । तदनुसार समस्त जगत् ब्रह्मरूप उपादान का विवर्त है। हेतु या कारण के अर्थ में 'प्रकृति' शब्द का ग्रहण करनेवालों की युक्ति है कि 'पुत्रात्प्रमोदो जायते' इत्यादि उदाहरणों में जो प्रस्तुत सूत्र से अपादान-संज्ञा होकर पञ्चमी होती है वह उपादान-कारण में नहीं । पुत्र प्रमोद का उपादान कारण नहीं है । अतएव प्रकृति का अर्थ समवायि, असमवायि तथा निमित्त-इन तीनों कारणों को मानना चाहिए, केवल प्रथम को नहीं । गदाधर प्रकृति के विकारित्व अर्थ का खण्डन करते हुए कहते हैं कि जिन पदार्थों में प्रकृति-विकृतिभाव नहीं हो वहां भी पञ्चमी देखते हैं; यथा-'प्राक्केकयीतो भरतस्ततोऽभूत्' । पुत्र का शरीर माता-पिता के शरीर का विकार नहीं होता, प्रत्युत उनके शुक्र-शोणितादि से निर्मित होता है। ये यद्यपि शरीर में ही रहते हैं तथापि मल-मूत्रादि के समान ये भी शरीर के अवयव नहीं है। यह शंका नहीं करनी चाहिए कि 'मृत्पिण्डाद् घटो जायते' इत्यादि उदाहरणों में अपादान-पञ्चमी न होकर हेतु-पञ्चमी है । हेतु-पञ्चमी की प्रवृत्ति अस्त्रीलिंग गुणवाचक शब्दों से होती है, मृत्पिण्ड तो गुणवाचक पद नहीं है। अतः इसमें अपादान-पञ्चमी ही है ( व्यु० वा०, पृ० २५७ ) । १. 'शुक्रशोणितादेः शरीरस्थत्वेऽपि मलमूत्रादेरिव शरीरावयवत्वाभावात्' । -ध्यु० वा०, पृ. २५७
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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