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________________ अपादान-कारक २८३ तृतीया है। 'कर्तृकर्मणोः कृति' (पा० २।३।६५ ) से कृद्योग में ( दृश् + ल्युट् = दर्शनम् ) षष्ठी की प्राप्ति होने पर 'उभयप्राप्तौ कर्मणि' (२।३।६६ ) से केवल कर्म में ही ( कर्ता में नहीं ) यह होती है। दीक्षित की इस व्याख्या से नागेश सहमत नहीं, क्योंकि पिछले सूत्र की प्रवृत्ति वहीं होती है जहाँ कर्ता और कर्म दोनों का वास्तविक प्रयोग हुआ हो । उद्योत ( पृ० २५२ ) में इसलिए नागेश 'येन' में सौत्री ( सूत्रमात्र में सिद्ध ) तृतीया मानते हैं । तदनुसार अर्थ होता है कि व्यवधान के लिए जिसे कर्ता बनाकर, अपने को कर्म के रूप में रखते हुए अदर्शन चाहता हो वह अपादान है ( 'अन्तधिनिमित्तकं यत्कर्तृकमात्मकर्मकमदर्शनमिच्छति तदपादानम्'-उद्योत ) । यथा'उपाध्यायादन्तर्धत्ते । मातुनिलीयते कृष्णः' । उपाध्याय ( कर्ता ) के द्वारा वह ( कर्म ) देखा न जाय, इसलिए वह तिरोभूत होता है। इसी प्रकार माता ( कर्ता ) कृष्ण ( कर्म ) को देख न ले, इसी उद्देश्य से कृष्ण छिप जाते हैं । पतञ्जलि इसे भी बौद्ध अपाय के अन्तर्गत रखते हुए कहते हैं कि शिष्य पहले से विचार करता है कि यदि उपाध्याय उसे देख लेंगे तो कोई कार्यभार दे देंगे अथवा उपालम्भन ( डाँटना ) ही आरम्भ कर दें-इसी से वह निवृत्त हो जाता है। दीक्षित इस सूत्र में 'इच्छति' का प्रयोजन बतलाते हैं। जब अदर्शन की इच्छा विद्यमान हो और उसके अनुकूल कार्य भी किया जा रहा हो, किन्तु दैववश दर्शन हो जायें, ऐसी स्थिति में भी ये प्रयोग होते हैं, क्योंकि दर्शन होने पर भी अदर्शन की इच्छा तो मन में है ही। यदि 'इच्छति' का प्रयोग सूत्रकार नहीं करते तो केवल दर्शनाभाव के स्थल में ही ऐसे प्रयोग हो सकते थे, दर्शन होने की दशा में नहीं । 'भातुनिलीयते' इत्यादि उदाहरणों में इच्छा का बोध आक्षेप से होता है । 'चौरान्न दिदृक्षते' (चोरों को देखना नहीं चाहता) यहाँ अन्तधि (व्यवधान) की सत्ता न होने से अपादान नहीं हुआ है । तथापि शब्दकौस्तुभ में 'अन्तधि' को चिन्त्य-प्रयोजन बतलाते हुए इसका तिरस्कार किया गया है कि उक्त उदाहरण में परत्व के कारण कर्मसंज्ञा उपपन्न हो जाती है, अन्तधि की कोई आवश्यकता नहीं। किन्तु ज्ञानेन्द्र सरस्वती इसकी अनिवार्यता व्यक्त करते हैं कि 'चोर मुझे देख न लें' इसी उद्देश्य से वह चोरों को देखना नहीं चाहता, यही अर्थ विवक्षित है । अब कर्म ( चौरान् ) में यदि कर्मत्वविवक्षा नहीं हो, प्रत्युत शेषत्व की विवक्षा हो तो उससे उत्पन्न षष्ठी को रोककर यहाँ इस अन्तधि-विहीन सूत्र से पञ्चमी हो जायगी। इसके वारणार्थ 'अन्तधि' का प्रयोग आवश्यक है। अतः अन्तधि-बोध के अभाव में 'चौरान्न दिदृक्षते' का प्रयोग होता है। ___ नागेश के अनुसार नि+ लीङ्-धातु ( निलीयते ) का अर्थ है-स्वकर्मक दर्शनाभाव की प्रयोजिका देश-विशेष में स्थिति अर्थात् अपने-आप को दिखलायी नहीं पड़ने देने के १. तुलनीय-( श० कौ० २, पृ० ११९ तथा ल० श० शे०, पृ० ४५४ ) 'अदर्शनेच्छया तदनुकलव्यापारकरणे दैववशात् दर्शने सत्यपीत्यर्थः । अन्यथा यत्र दर्शनाभाव एव तत्रैव स्यादिति भावः' ।
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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