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________________ सम्प्रदान-कारक २३३ कर्म और सम्प्रदान के इस विनिमय-विवेचन से सम्बद्ध ही एक वार्तिक है'कर्मणः करणसंज्ञा सम्प्रदानस्य च कर्मसंज्ञा' (सं० १०९६ ) । इसमें कर्म को करणसंज्ञा तथा सम्प्रदान को कर्मसंज्ञा होने की बात कही गयी है; यथा- 'पशुं रुद्राय ददाति' के अर्थ में 'पशुना रुद्रं यजते' ( रुद्र-देवता का उद्देश्य से पशु का त्याग करता है )। अग्नि में पशु का प्रक्षेप होता है जिसे रुद्र के उद्देश्य से दिया जाता है। यहां यजन-क्रिया पूजार्थक नहीं है, दानार्थक है । कैयट इसीलिए इस वार्तिक को छन्दोविषयक मानते हैं, क्योंकि लोक में तो उक्त क्रिया पूजा के अर्थ में होती है जिससे पशु कारण के ही रूप में सिद्ध है। वैदिक उदाहरण होने के कारण भट्टोजिदीक्षित इसे सुप् का व्यत्यय मानकर खण्डनीय कहते हैं ( श० को० २, पृ० १२१)। दानक्रिया तथा सम्प्रदान : अन्वर्थसंज्ञकता पाणिनितन्त्र में सम्प्रदान की अन्वर्थसंज्ञकता पर दो स्पष्ट मत हैं। एक ओर पतञ्जलि की मान्यता है कि सम्प्रदान महासंज्ञा होने पर भी अन्वर्थ-संज्ञा नहीं। दूसरी ओर भर्तृहरि, जयादित्य, भट्टोजिदीक्षितादि इसे अन्वर्थसंज्ञा मानते हैं । केवल दानार्थक क्रिया से सम्बद्ध मानने से ही सम्प्रदान की अन्वर्थता होती है। प्रत्युत सम्यग् रूप से प्रदान करना इसमें, निहित है । दान के अन्तर्गत स्वत्वनिवृत्ति और परस्वत्वापादन---ये दो क्रियाएँ हैं। जब तक ये दोनों क्रियाएँ नहीं होती तबतक सम्यक् प्रदान नहीं कहा जा सकता । तन्त्रान्तर में आचार्यों ने पूजा, अनुग्रह तथा काम्या को दान के कारणों में लिया है। पुरुषोत्तम देव के अनुसार भाव को शुद्ध रखते हुए गुरु, देवता या ब्राह्मण का सम्मान जो ध्यान, प्रणाम तथा दान के द्वारा किया जाय उसे 'पूजा' कहते हैं । कुरूप, प्रमत्त, धनहीन या दयनीय को, घृणा का प्रदर्शन किये बिना, जो दान और सम्मान से पूर्ण किया जाता है वह 'अनुग्रह' है। इसी प्रकार कुछ फल के उद्देश्य से दान, यज्ञ, जप आदि जो कायिक कर्म किये जाते हैं, वे मनीषियों के द्वारा 'काम्या' के अधीन स्वीकृत किये गये हैं । ___ यद्यपि पतञ्जलि मुख्यवृत्ति से अन्वर्थसंज्ञकता का निरासन नहीं करते; तथापि उनके द्वारा इस मत के ग्रहण के पक्ष में ये युक्तियां हो सकती हैं-(क) 'क्रियाग्रहण' वाले वार्तिक का खण्डन करने के कारण यह प्रतीत होता है कि पतञ्जलि सम्प्रदान के ग्रहण में सम्यक् प्रदान तो दूर रहा, दानमात्र के ही ग्रहण में उदासीन हैं । वे तो सकर्मक-अकर्मक सभी क्रियाओं का ग्रहण सूत्र में ही कर लेना चाहते हैं, केवल दान-क्रिया का नहीं। स्पष्ट है कि सम्प्रदान दान-क्रिया तक ही सीमित नहीं है। ( ख ) 'गत्यर्थकर्मणि' (पा० २।३।१२) की व्याख्या में, गत्यर्थक धातुओं के १. पूजानुग्रहकाम्याभिः स्वद्रव्यस्य परार्पणम् । दानं, तस्यार्पणस्थानं सम्प्रदानं प्रकीर्तितम् ॥ -रामतकंवागीश, मुग्धबोध-टीका ( सू० २९४ ) । २. पुरुषोत्तम, कारकचक्र, पृ० १०९ ।
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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