SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 254
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३४ संस्कृत-ग्याकरण में कारकतत्वानुशीलन साथ भी सम्प्रदान होता है, इसकी पुष्टि वे करते हैं । ( ग ) अब सम्यक् प्रदान की बात लें । भाष्यकार के कुछ प्रयोग इसका भी अवसर समाप्त कर देते हैं; यथा-'न शूद्राय मतिं दद्यात्, खण्डिकोपाध्यायः शिष्याय चपेटां ददाति' । इन दोनों उदाहरणों को सम्यक् प्रदान के निकष पर रखें तो स्थिति स्पष्ट हो जाती है। अपने स्वामित्व का त्याग करके दूसरे को उसे देने का अर्थ किसी में नहीं।' भर्तहरि तथा हेलाराज के अनुसार सम्प्रदान में सम्यक् प्रदान का अर्थ निहित रहने से यह अन्वर्थ संज्ञा है; यद्यपि क्रिया-ग्रहण वाले वार्तिक को भी वाक्यपदीय में कारिकाबद्ध किया गया है। किन्तु इसे भाष्यकार की व्याख्यामात्र से प्रयोजन है, उनके समर्थन से नहीं। हेलाराज तो स्पष्ट कहते हैं- 'अन्वर्थत्वात्सम्प्रदानशब्दस्य त्यागाङ्गमिति लक्षणलाभः' (पृ० ३३१) । भर्तृहरि का सम्प्रदान-लक्षण है-'त्यागाङ्गं कर्मणेप्सितम' । दिये जाने वाले पदार्थ की स्वत्वनिवृत्ति करके उस पर दूसरे का स्वत्व आपादित करना त्याग कहलाता है । इस त्याग का अंग अर्थात् निमित्त सम्प्रदान है। किन्तु केवल इतना कहने से हाथ आदि को भी सम्प्रदान हो जा सकता है, इसलिए विशेषण के रूप में 'कर्मणा ईप्सितम्' भी कहा गया है। जो कर्म त्याग का विषय है उसके द्वारा कर्ता जिसे प्राप्त करना चाहे वह सम्प्रदान है। यह वस्तुतः पाणिनी-सूत्र का ही प्रकारान्तर से कथन है, किन्तु पाणिनि के 'कर्मणा' शब्द ने विभिन्न क्रियाओं के कर्म के रूप में इसे व्याख्यात करने का अवकाश रख छोड़ा है, जब कि भर्तहरि इसे 'त्यागकर्मणा' या 'दानकर्मणा' के रूप में सीमित कर देते हैं। यही अर्थ काशिका में जयादित्य को तथा दीक्षित को भी अपने ग्रन्थों में स्वीकार्य है। सम्प्रदान के भेद सम्प्रदान का लक्षण निरूपित करने वाली कारिका में भर्तहरि यह भी दिखलाते हैं कि त्याग के उक्त निमित्त किन रूपों में सम्प्रदान-कारक का रूप धारण करते हैं __ 'अनिराकरणात्कर्तुस्त्यागानं कर्मणेप्सितम् । प्रेरणानुमतिभ्यां च लभते सम्प्रदानताम् ॥ -वा०प० ३७।१३१ अर्थात् त्याग का निमित्त पदार्थ जिसे कर्ता अपने कर्म के द्वारा प्राप्त करने की इच्छा करे, सम्प्रदान-कारक कहलाता है और यदि वह निमित्त कर्ता के द्वारा किये गये उक्त त्याग का-(१) निराकरण नहीं करे, (२) उसकी प्रेरणा दे या ( ३ ) उसे वैसा करने की अनुमति दे-ये तीनों कारण सम्प्रदान के भेद के आधार हैं । (१) अनिराकरण-जब पदार्थ ग्रहण करनेवाला ( सम्प्रदान ) दिये गये द्रव्य का निराकरण ( तिरस्कार ) नहीं करता, तब सम्प्रदान-व्यापार होता है। यथाउपाध्यायाय गां ददाति । त्यागा जानेवाला कर्म ( गो ) उपाध्याय से सम्बद्ध होता है, क्योंकि उन्हीं के अभिप्राय या उद्देश्य से वस्तु का त्याग हो रहा है। ये उपाध्याय १. कैयट २, पृ० २५७ ।
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy