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________________ २३२ संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन है, जब कि 'ग्रामाय गच्छति' में ग्राम के उद्देश्य से होने वाली गमन-क्रिया मात्र का बोध होता है। __ 'अध्वानं गच्छति' में भी अध्व सम्प्राप्त कर्म है, जिससे द्वितीया की प्राप्ति होती है । वस्तुतः व्यक्ति मार्ग पर पहले से ही प्राप्त है, अतः इसे शुद्ध रूप में कर्म ही कहा जायगा । दूसरी ओर, यदि मार्ग पहले से सम्प्राप्त नहीं हो और उसके उद्देश्य से कोई यात्रा कर रहा हो तो 'अध्वने गच्छति' अवश्य होगा। इस पर कात्यायन का वार्तिक भी है-'आस्थितप्रतिषेधश्च' ( सं० १४२१ ) । अध्ववाचक शब्द का बोध होने पर सामान्यतया चतुर्थी का निषेध होता है, किन्तु यह तभी होगा जब मार्ग पहले से ही आक्रान्त या प्राप्त हो । जब उन्मार्ग से मार्ग पर जाना अभीष्ट हो तब 'उत्पथेन पथे गच्छति' या 'अध्वने गच्छति' यही रूप होता है । पतञ्जलि इस पर बल देते हैं। इस प्रसंग में भर्तृहरि द्वारा भी इसका समर्थन द्रष्टव्य है 'त्यागरूपं प्रहातव्ये प्राप्ये संसर्गदर्शनम् । आस्थितं कर्म यत्तत्र द्वरूप्यं भजते क्रिया॥ -वा०प० ३१७१३५ जिस मार्ग पर चल रहे हैं वह आस्थित है । गमनक्रिया के सम्बन्ध से वह कर्म है अर्थात् आस्थित कर्म है। ऐसे मार्ग से सम्बद्ध होनेवाली गमन-क्रिया के दो रूप होते हैं । अतिक्रमण के योग्य ( हातव्य ) मार्ग के विषय में क्रिया का रूप त्यागात्मक होता है, किन्तु जो भाग अभी अतिक्रान्त नहीं हुआ है, आसाद्य ( प्राप्य ) ही है, उसके विषय में क्रिया का रूप संसर्गात्मक होता है। इस त्यागरूप और ग्रहण रूप का अविच्छिन्न प्रवाह गमन-क्रिया में चलता रहता है। दोनों रूप गमन-क्रिया से अभिन्नतया सम्बद्ध रहते हैं और इससे आक्रान्त ( आस्थित ) 'अध्व' कर्मसंज्ञा का ही विषय रहता है। क्रिया के भेद के अभाव में, उपर्युक्त अभेद-विवक्षा की विधि से, यह 'अध्व' कर्मभूत क्रिया से सम्बद्ध नहीं होता और सम्प्रदान-संज्ञा का विषय नहीं बन सकता है। इसलिए 'अध्वानं गच्छति' प्रयोग होता है । 'ग्राम' आदि के साथ दूसरी बात है; वह अध्व के रूप में नहीं है कि अध्वगमन की प्रक्रिया उस पर लागू हो ।' हां, यह बात अवश्य है कि जहां मार्ग अनास्थित हो वहाँ अवश्य ही दोनों विभक्तियां प्राप्त होती हैं। यह तभी होता है जब एक ही पथ पर गमन का बोध नहीं होउत्पथ से पथ पर जा रहा हो। ऐसी स्थिति में त्याग और ग्रहण इन दो रूपो का पार्थक्य स्पष्ट रहता है, क्रिया एकरूप नहीं होती। उत्पथ का त्याग और पथ का ग्रहण-क्रिया के ये ही दो रूप यहां प्रतीत होते हैं । एक ही मार्ग पर चलने की तरह दोनों रूपों का अविच्छिन्न प्रवाह प्रतीत नहीं होता। १. “यो सत्पथेन पन्थानं गच्छति, 'पथे गच्छति' इत्येव तत्र भवितव्यम्” । ( उद्योत )- 'एवकारो भिन्नक्रमः । इति तत्र भवितव्यमेवेत्यर्थः' । -भाष्य २, पृ० ४९५ २. द्रष्टव्य-हेलाराज ३, पृ० ३३७-३८ ।
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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