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________________ संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन में भी प्राप्त होते हैं । यास्क ने निम्बत के आरम्भ में ही निम्नलिखित पांच आवार्यों का उल्लेख किया है, जो भापातत्त्व के चिन्तन में लगे हुए थे---औपमन्यव, औदुम्बरायण, वार्ष्यायणि, शाकटायन तथा गार्ग्य' । इनके अतिरिक्त कौत्म, शाकणि, स्थौलाप्ठीवि इत्यादि आचार्य भी निम्बत में निर्दिष्ट हैं । शाकटायन तथा गार्ग्य का परस्पर विरोध निरूक्त में कई स्थानों पर प्रकट हुआ है । पाणिनि ने भी अप्टाध्यायी में अपने पूर्व के १० व्याकरण-प्रवक्ताओं के नाम दिये हैं --आपिशलि (६।१।९२ ), काश्यप ( १।२।२५ ), गार्ग्य ( ८।३।२० ), गालव (७।१।७४ ), चाक्रवर्मण (६।१।१३०), भरद्वाज (७।२।६३ ), शाकटायन (३।४।१११ ), शाकल्य ( १।१।१६ ), सेवक (५।४।११२ ) तथा स्फोटायन (६।१।१२२ )। प्रातिशाख्यों में भी अनेक प्राक-पाणिनि आचार्यों के नाम मिलते हैं, जिनके आधार पर युधिष्ठिर मीमांसक ने ८५ व्याकरण-प्रवक्ताओं को पाणिनि से पूर्ववर्ती माना है । इन सभी आचार्यों ने अवश्य ही कुछ-न-कुछ योगदान कारक तथा विभक्ति के विषय में भी किया होगा, किन्तु सूचना-सामग्री के अभाव में सम्प्रति कुछ भी कहना कठिन है । निरुक्तकार यास्क का मुख्य उद्देश्य यद्यपि व्याकरण के पदार्थों का विचार करना नहीं था, तथा पिआनुषंगिक रूप से उन्होंने कतिपय संज्ञा-शब्दों का उल्लेख किया है । पदभेद, शब्दों के धातुज-सिद्धान्त तथा निर्वचन के लिए तो यास्क का महत्त्व है ही। प्रथमाध्याय में 'त्व' शब्द 'के 'दृष्टव्यय' ( विकारी शब्द ) होने के उदाहरण में वे त्वः, त्वे तथा त्वस्मै के वैदिक प्रयोग दिखलाते हैं, जिनमें प्रथमा तथा चतुर्थी की विभक्तियाँ हैं। इसी प्रकार सप्तमाध्याय में ऋचाओं के तीन भेद करते हुए परोक्षकृत ऋचाओं का प्रयोग सभी सुप-विभक्तियों में उन्होंने दिखलाया है। पाणिनि कुल मिलाकर पाणिनि ही प्रथम उपलब्ध वैयाकरण हैं, जिन्होंने कारक तथा विभक्ति का पृथक-पृथक् सम्यक् रूप से विचार किया । पाणिनि का समय पाश्चात्य विचारकों की दृष्टि में ३५० ई० ए० ( उत्तर सीमा ) से ७०० ई० पू० तक होता है, जब कि युधिष्ठिर मीमांसक महाभारत काल के थोड़ा ही बाद २९०० (वि० पू० ) १. 'निगमनान्निघण्टव उच्यन्त इत्यौपमन्यवः । इन्द्रियनित्यं वचनमित्यौदुम्बरायणः' । -नि० ११ 'पड्भावविकारा भवन्तीति वार्ष्यायणिः' ।-नि० १।३ । 'न निर्बद्धा उपसर्गा अर्थानिराहुरिति शाकटायनः । उच्चावचाः पदार्था भवन्तीति गार्ग्यः'। -नि० १।२ २. द्रष्टव्य-सं० व्या० शा० इति०, भाग १, पृ० ६३ । ३. द्रष्टव्य-हिन्दी निरुक्त ( उमाशंकर शर्मा द्वारा सम्पादित ), भूमिका २, पृ० ३१ । ४. 'तत्र परोक्षकृता ऋचः सर्वाभिर्नामविभक्तिभिः प्रयुज्यन्ते प्रथमपुरुषश्चाख्या -निरुक्त ७१
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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