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________________ कारक-विषयक भारतीय चिन्तन का इतिहास पाणिनि का समय मानते हैं, जो अनेक अन्तरंग तथा बहिरंग प्रमाणों पर आश्रित है । इतना तो निश्चित ही है कि पाणिनि या तो बुद्ध से पूर्व होंगे या उनसे सर्वथा अपरिचित रूप में पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त में रहते होंगे। तथापि अनेक भारतीय विद्वानों की सम्मति है कि ५०० ई० पू० इनका समय मानना उचित है। पाणिनि ने लौकिक तथा वैदिक दोनों भाषाओं का एक संयुक्त व्याकरण अष्टाध्यायी के नाम से लिखा, जिसमें नामानुसार ८ अध्याय हैं तथा प्रत्येक अध्याय में ४-४ पाद हैं। प्रायः ४००० सूत्रों में पाणिनि ने अपने सूक्ष्म किन्तु व्यापक दृष्टि का अनुपम प्रदर्शन किया है। अष्टाध्यायी के प्रथमाध्याय के चतुर्थ पाद में कारक-विषयक सूत्र दिये गये हैं, जो संख्या में ३३ हैं ( १।४।२३-५५ )। प्रथम सूत्र 'कारके' है, जिसके अधिकार में अपादान, सम्प्रदान, अधिकरण, कर्म तथा कर्ता-इस क्रम से कारकों का विवेचन हुआ है। इनमें कुछ कारकों से ( जैसे-अपादान तथा सम्प्रदान ) सम्बद्ध कई-कई सूत्र हैं। एक कारक के स्थान में दूसरे कारक के होने का विधान करने वाले सूत्र भी इनमें हैं; यथा-'ऋधहोरुपसृष्टयोः कर्म, अधिशीस्थासां कर्म' इत्यादि । पाणिनि के सूत्र संक्षिप्त होने पर भी दुर्बोध नहीं। इनमें एक शब्द भी निरर्थक नहीं है, प्रत्येक शब्द का अपना मूल्य है । इन कारक-सूत्रों के पूरक के रूप में अष्टाध्यायी के द्वितीयाध्याय के तृतीय पाद में विभक्तियों का विचार किया गया है । ७३ सूत्रों का यह पूरा पाद ही विभक्ति-विचार को समर्पित है। इसमें 'अनभिहिते' के अधिकार में क्रमशः द्वितीया, चतुर्थी, तृतीया, पंचमी तथा सप्तमी विभक्तियों के प्रयोग-स्थलों का निदर्शन किया गया है। बीच-बीच में अनुवृत्ति की सुविधा देखकर एक विभक्ति के निरूपण में दूसरी विभक्तियों का भी प्रयोगस्थल प्रदर्शित हुआ है । यथा-कालाध्वनीरत्यन्तसंयोगे' के द्वारा होने वाली द्वितीया विभक्ति के साथ ही 'अपवर्ग तृतीया' का भी निरूपण है । 'यस्य च भावेन भावलक्षणम्' के द्वारा नियत सप्तमी विभक्ति के साथ 'षष्ठी चानावरे' भी दिया गया है। इसके बाद अनभिहिताधिकार से भिन्न प्रातिपदिकार्थ मात्र में होनेवाली प्रथमा विभक्ति का विधान करके पाणिनि ने शेषलक्षणा षष्ठी का निरूपण किया है। यह शेष उपर्युक्त क्रम की अपेक्षा रखने से ही समझा जा सकता है, क्योंकि जिन विषयों का निरूपण ( कर्म में द्वितीया इत्यादि का ) इस पाद में हो चुका है उनसे भिन्न स्थलों को ही शेष कहते हैं। हम प्रकरणान्तर में देखेंगे कि इसके दो भेद होते हैं.–सम्बन्ध-सामान्य तथा कारकों की शेषत्व १. द्रष्टव्य-सं० व्या० शा० इति०, भाग १, पृ० १९७ । २. (क) 'तत्राशक्यं वर्णेनाप्यनर्थकेन भवितुं, किं पुनरियता सूत्रजालेन' । -महाभाष्य १।१।१ पर (ख) 'सामर्थ्ययोगान्नहि किञ्चिदस्मिन् पश्यामि शास्त्रे यदनर्थकं स्यात्' । -६।१७७ पर
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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