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________________ कारक-विषयक भारतीय चिन्तन का इतिहास अत्यन्त प्रौढ़ थे । वे यह बात ठीक-ठीक समझते थे कि किसी मन्त्र में कोई शब्द किसी विशेष विभक्ति में क्यों है । 'इन्दवो वामुशन्ति हि' ( १।२।४ ) में इन्दु का कर्तृत्व, 'अग्निमीळे' ( १।१।१ ) में अग्नि का कर्मत्व, 'प्रचेतयति केतुना' (१।३।१२) में केतु का करणत्व, 'एमाशुमाशवे भर' (१।४।७ ) में आशु का सम्प्रदानत्व, 'अतः परिज्मन्ना गहि दिवो वा पार्थिवावधि' ( १।६।९) में अपादान, 'आ सूर्य रोहयेद् दिवि' ( १७।३ ) में अधिकरण तथा ऐसे ही अन्यान्य प्रयोगों से हम ऋग्वेदीय वाक्यों में कारक-कल्पना का अनुमान कर सकते हैं । सत्य तो यह है कि जिस दिन से मनुष्य ने भाषा का प्रयोग आरम्भ किया उसी के साथ ही कारक भी भाषा का अविभाज्य अंग बनकर वाक्यों में समाविष्ट हो गया । तथापि तद्विषयक चिन्तन तो बाद की देन है। वैदिक साहित्य में कारक से पूर्व विभक्ति का निर्देश प्राप्त होता है । यद्यपि ऋग्वेद में 'चत्वारि शृङ्गा' ( ४।५८।३ ) इत्यादि मन्त्र में स्थित 'सप्त हस्तासो अस्य' के सात हाथों से सात विभक्तियों का अर्थ किया गया है ( महाभाष्य, पृ० ३ ), तथापि विभिन्न व्याख्याकारों के द्वारा इस प्रहेलिकात्मक मन्त्र की पृथक-पृथक् व्याख्या किये जाने के कारण यह कहना कठिन है कि निश्चित रूप से सात हाथ सात विभक्तियों के ही बोधक हैं । ऋग्वेद में अन्यत्र (८१६९।१२) भी 'यस्य ते सप्त सिन्धवः' का प्रयोग हुआ है, जिसका उद्धरण पतञ्जलि ने भाष्य में देकर इसमें स्थित सात नदियों का अर्थ सात विभक्तियों के रूप में ही किया है। बहुत सम्भव है कि यहाँ वाणी की सात नदियां, जो जिह्वा पर प्रवाहित होती हैं, सात विभक्तियाँ ही हों। मैत्रायणी-संहिता में हमें सर्वप्रथम विभक्ति शब्द के दर्शन होते हैं-'तस्मात् षड़ विभक्तयः' ( १७।३)। ऐतरेय ब्राह्मण (७७ ) में विभक्ति के रूप में सात भागों में विभक्त वाणी की चर्चा हुई है, किन्तु गोपथ-ब्राह्मण में ( पू० १।२४ ) एक ही साथ व्याकरण के अनेक संज्ञा-शब्दों के बीच विभक्ति का निर्देश होने से इसका महत्त्व बहुत बढ़ गया है । इसके पूर्व ही तैत्तिरीय-संहिता के एक निर्देश ( ६।४७ ) के अनुसार इन्द्र के द्वारा वाणी के व्याकृत अर्थात् प्रकृति-प्रत्यय के रूप में पृथक होने का उल्लेख है ( वाग्वं पराव्यव्याकृतावदत्, ते देवा इन्द्रमब्रुवन्, इमां नो वाचं व्याकुविति ........तामिन्द्रो मध्यतोऽवक्रम्य व्याकरोत् )। ऋक्-तन्त्र के निर्देशानुसार व्याकरण के प्रथम प्रवक्ता ब्रह्मा थे, जिन्होंने बृहस्पति को शिक्षा दी, बृहस्पति ने इन्द्र को, इन्द्र ने भरद्वाज को तथा इन्होंने ऋषियों को व्याकरण का प्रवचन किया। इन ऋषियों से ब्राह्मणों में शब्द-विद्या का प्रचार हुआ । पाणिनिपूर्व वैयाकरण यास्क तथा पाणिनि के पूर्व अनेक वैयाकरणों के सम्प्रदाय भाषागत पदार्थों के स्वतन्त्र चिन्तन में लगे हुए थे, जिनके नाम हमें निरुक्त, अष्टाध्यायी तथा प्रातिशाख्यों १. 'ओङ्कारं पृच्छामः । को ! 'तुः, किं प्रातिप्रदिकं, किं नामाख्यातं, कि लिङ्ग, कि वचनं, का विभक्तिः , कः प्रत्ययः, कः स्वरः, उपसर्गो निपातः, किं वै व्याकरणम्' ? २. पं० युधिष्ठिर मीमांसक, सं० व्या० शा० इति०, भाग १, पृ० ५८ ।
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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