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________________ संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन हैं उसी प्रकार अनेक करण एक ही साथ क्रियासिद्धि में प्रकृष्टोपकारक हो सकते हैं' । २०० कर्ता के विवेचन में हम यह देख चुके हैं कि यह अपने व्यापार में सर्वथा स्वतंत्र होता है और उसके द्वारा विनियोग होने के पश्चात् ही अन्य कारकों की प्रवृत्ति होती है | अतः यह शङ्का स्वाभाविक है कि कर्ता कारक ही अन्य कारकों की अपेक्षा साधकतम क्यों नहीं है ? जो सभी कारकों को अपने-अपने व्यापार में नियुक्त करता है, जिससे क्रियासिद्धि सम्भव होती है उसे ही प्रकृष्टोपकारक समझना चाहिए। इस प्रश्न में करण तथा कर्ता के क्रियोपकारकत्व का विवाद प्रारम्भ होता है, किन्तु भर्तृहरि इसका सन्तोषजनक समाधान देते हैं । उनके अनुसार कर्ता की स्वतंत्रता और करण के प्रकृष्टोपकारकत्व में कोई विरोध नहीं है 'स्वातन्त्र्येऽपि प्रयोक्तार आरादेवोपकुर्वते । करणेन हि सर्वेषां व्यापारो व्यवधीयते' || - वा० प० ३।७।९४ भाव यह है कि पूरी स्वतंत्रता होने पर भी क्रिया की सिद्धि में कर्ता - कारक दूर से ही उपकार करता है, क्योंकि करण कारक के द्वारा सभी कारकों का व्यापार व्यवहित हो जाता है । इससे स्पष्ट है कि कर्ता सभी कारकों को मूलतः व्यापारित करने के कारण स्वतंत्र है, करण को भी यही व्यापारित करता है । किन्तु कर्ता और क्रियासिद्धि के बीच कुछ अन्तराल रहता है, जिसमें करण की उपस्थिति रहती है । करण-व्यापार के अनन्तर ही क्रिया की सिद्धि हो जाती है, कुछ भी विलम्ब नहीं होता । दूसरी ओर कर्तृव्यापार अन्य कारकों के व्यापार के समान दूर से क्रियासिद्धि में सहायता पहुँचाता है । वास्तव में कर्तृव्यापार तथा क्रियासिद्धि के बीच वे सभी कारक - व्यापार आ जाते हैं जिन्हें कर्ता अपने लक्ष्य की पूर्ति में सहायक समझ कर विनियुक्त करता है । अत: इस दूरी को देखते हुए कर्ता को प्रकृष्टोपकारक या साधकतम नहीं कहा जा सकता । व्यापार में स्वतंत्र होना एक वस्तु है और प्रकृष्टोपकारक होना दूसरी वस्तु । प्रकारान्तर से भी इसका समाधान किया जा सकता है । दूसरे कारकों की अपेक्षा करण की अतिशयता तभी विवक्षित होती है जब क्रियासिद्धि की बात की जाय और यह बात तभी उठती है जब कारक प्रवृत्त हों अर्थात् अपने-अपने व्यापार में लग जायें । ऐसी स्थिति में कर्ता के द्वारा उनका विनियोग अपेक्षित होता है; फलतः कर्ता-कारक के प्रति उनका न्यग्भाव ( परतंत्रता, अप्रधानता ) व्यवस्थित १. 'खलेकपोतन्यायेन सर्वेषां साक्षादुपकारकत्वविवक्षणादित्यर्थः ' । - उद्योत २, पृ० २६० २. 'पारतन्त्र्यायोगेऽपि साधनान्तराणां प्रयोक्तारः कर्तारो विनियुक्तसाधनान्तरव्यापारव्यवधानेन क्रियां दूरादेव साधयन्ति । करणव्यापारसमनन्तरमेव तु क्रियासिद्धिः' । - हेलाराज ३, पृ० ३८
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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