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________________ करण-कारक प्रकर्ष स्वकक्षा में या परापेक्षक किसी पदार्थ के व्यापार की अतिशयविवक्षा के कारण उसमें करणत्व की व्यवस्था होती है । अब प्रश्न होता है कि यह प्रकर्ष या अतिशय अन्य कारकों की अपेक्षा रखता है या विभिन्न करणों में ही परस्पर प्रकर्ष का निर्णय होता है ? वस्तुत: किसी पदार्थ को तभी करण कहते हैं जब अन्य कारकों के व्यापारों की अपेक्षा उसकी प्रकृष्टता का बोध हो, क्योंकि दूसरे कारकों के व्यापार के तुरन्त बाद क्रियासिद्धि नहीं होती जब कि करण-व्यापार के बाद ऐसा होता है । यदि एक ही साथ कई पदार्थ अपने व्यापारों के अतिशय के कारण करण के रूप में विवक्षित हों तो उन सबों में परस्पर प्रकर्ष का निर्णय नहीं होता; वे सभी प्रकृष्ट ( करण ) ही माने जाते हैं। इसीलिए 'अश्वेन पथा गच्छति' में अश्व और पथिन् दोनों करण हैं; 'सूपेन सर्पिषा लवणेन पाणिना ओदनं भुक्ते' में भी चार-चार पदार्थ क्रम से करण हैं। ऐसा नहीं होता कि किसी एक को प्रकृष्टों में भी अतिप्रकृष्ट मानकर उसे करणसंज्ञा देकर शेष को निकाल बाहर करें । यद्यपि यह एक सर्वमान्य नियम है कि प्रकर्ष सजातीय पदार्थों के बीच ही गिना जाता है, किन्तु इस स्थल में साधन या कारक की जाति मानकर, कारकत्व-धर्म के सभी कारकों में अनुगत होने के कारण विभिन्न कारकों के साथ करण की सजातीयता व्यवस्थित हो सकती है और उनमें प्रकर्ष दिखाकर करण-कारक का पार्थक्य प्रकट करते हुए 'सजातीयापेक्षः प्रकर्ष;' का समन्वय सम्भव है । अपनी कक्ष्या में कभी प्रकर्ष का प्रश्न नहीं उठता और इसलिए अनेक करणों की युगपत् सत्ता रह सकती है । हेलाराज बतलाते हैं कि 'अश्वेन पथा दीपिकया याति' इस उदाहरण में अश्व, पथिन् और दीपिका-इन तीनों में दूसरे साधनों की अपेक्षा प्रकृष्ट साधनता है, इसलिए तीनों के करणत्व में कोई विरोध नहीं होता। गमनक्रिया का फल है -देशान्तरप्राप्ति । इसकी सिद्धि में कर्ता आदि की अपेक्षा अश्व अधिक उपकारक है । मार्ग भी अच्छा है, क्योंकि उसमें चौरादि का उपद्रव नहीं है । दीपिका भी अन्धकार-समूह का विनाश अपने आलोक से करती है-इस प्रकार दूसरे साधनों से इनका अतिशय निर्विवाद है । इन तीनों की उपकारकता 'खलेकपोतन्याय' से होती है । जैसे किसी खलिहान में छोटे-बड़े, बच्चे-बूढ़े अनेक कबूतर एक ही साथ उतरते १. 'स्वस्यां कक्ष्यायां करणभावावस्थायां सजातीयापेक्षः प्रकर्षोऽत्र तमप्प्रत्ययवाच्यो नाश्रीयते । अपि तु साधनसामान्यस्यानुगतस्य कारकान्तरापेक्ष एव प्रकर्षस्तमप्प्रत्ययवाच्यः करणत्वमावेदयते' । -हेलाराज ३, पृ० ३०८ २. 'स्वकक्ष्यासु प्रकर्षश्च करणानां न विद्यते । आश्रितातिशयत्वं तु परतस्तत्र लक्षणम्' ॥ -वा० ५० ३।७।९३ 'कारकान्तरापेक्षश्च करणस्यातिशयः, न तु स्वकक्ष्यायामित्यश्वेन दीपिकया पथा व्रजतीति सर्वेषां क्रियानिष्पत्ती सन्निपत्योपकारकत्वात्करणत्वं सिद्धम्'। -कैयटप्रदीप २, पृ० २५९
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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