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________________ २०१ रहता है। दूसरे शब्दों में, क्रियासिद्धि के विषय में प्रकर्ष का अर्थ है- कर्ता के प्रति अप्रधानता । कर्ता के प्रति सभी कारक अप्रधान होते हैं और उनमें करण की अतिशयता विवक्षित होती है। जब तक साधनों को व्यापार में लगाया नहीं जाता तब तक वे स्वतंत्रता पर आश्रित इस सामान्य 'साधन' शब्द से भी गृहीत (recognised) नहीं हो सकते, उनकी अपेक्षा कर्ता का अतिशय दिखलाना तो दूर की बात है । इसलिए अपने व्यापार में आविष्ट होने के बाद ही कारकों में प्रकर्ष का निर्णय होता है। सामान्य साधक ( कारक ) धर्म से युक्त होना ही कारकों का व्यापारावेश है; तदनन्तर प्रकर्ष की व्यवस्था होती है । ऐसी परिस्थिति में अतिशय (प्रकर्ष ) का विचार कर्ता को छोड़कर अन्य कारकों के बीच होता है, कर्ता इसमें भाग नहीं लेता। स्वामी अपने भृत्यों के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं करता, भृत्यों में परस्पर प्रतिस्पर्धा हो सकती है। हम जानते हैं कि प्रकर्ष सजातीय पदार्थों में ही निरूपित होता है। कर्ता की कोटि स्वतन्त्र की है, अन्य कारकों की परतन्त्र कोटि है-दोनों विजातीय पदार्थ हैं । अत: कर्ता-कारक के साथ प्रकर्ष का प्रश्न उठाना ही अव्यावहारिक है। इसी से यह शंका भी समाप्त हो गयी कि पराधीन साधन कैसे सप्रकर्ष हो सकता है ? पराधीनों में भी व्यापार करने की शक्ति है, अतः प्रकर्ष सम्भव है। कर्ता तथा करण में भेद करण और कर्ता के सम्बन्ध को लेकर बहुत सुन्दर रूपक दिया गया है। यह सत्य है कि करण-कारक में प्रकृष्ट रूप से क्रिया के उपकार की क्षमता है, किन्तु इससे कर्ता की स्वाधीनता अक्षत रहती है; क्योंकि वह करण का प्रेरक है। किसी विदेशी राज्य में उस राज्य की राजनयिक गतिविधियों से राज्याध्यक्ष की अपेक्षा विदेश में नियुक्त उसके राजदूत को अधिक सामीप्य रहता है। किन्तु उसके सारे क्रियाकलाप अपने राज्याध्यक्ष की सदिच्छा पर ही पूर्णतः अवलम्बित हैं, क्योंकि वहीं से उसकी नियुक्ति हुई है। यही स्थिति कर्ता के अधीन करण की भी है। किन्तु कर्ता और करण को विजातीय सिद्ध करके प्रकर्ष का प्रश्न समाप्त कर देने से एक विकट समस्या खड़ी हो जाती है। दोनों में यदि रूप का इतना विप्रकर्ष है तो करण-कारक को जो कर्ता में परिणत होते देखते हैं ( जैसे-असिश्छिनत्ति ) उसका क्या उत्तर होगा ? इस पर भर्तृहरि का समाधान है 'अस्यादीनां तु कर्तृत्वे तक्ष्ण्यादि करणं विदुः । तेक्षण्यादीनां स्वतन्त्रत्वे द्वधात्मा व्यवतिष्ठते' । -वा०प० ३७।९६ अर्थात् असि ( तलवार ) आदि यदि कर्ता के रूप में विवक्षित हों तो तीक्ष्णतादि १. "क्रियासिद्धौ प्रकर्षो वा न्यग्भावस्त्वेव कर्तरि । सिद्धौ सत्यां हि सामान्यं साधकत्वं प्रकृष्यते' ॥ -वा०प० ३।७।९५ द्रष्टव्य-इस पर हेलाराजीय टीका ।
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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