SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 191
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्म-कारक १७१ 'विशेष' है क्या ? जो कर्ता के व्यापार के समय ही उत्पन्न ( समकालिक ) हो तथा तटस्थ व्यक्ति के द्वारा भी बोध के योग्य हो, नागेश उसे ही 'योग्यता-विशेष' कहते हैं । इसके फलस्वरूप भूत, वर्तमान या भविष्यत् इन तीनों में से किसी भी काल में यदि चैत्र के काशी-गमन की प्राप्ति नहीं हो तो काशी को कर्मत्व नहीं हो सकता। काशी में फलाश्रय होने के रूप में उद्देश्य होने की योग्यता है तो सही, किन्तु गमनक्रिया के व्यापार के समय किसी उदासीन व्यक्ति से बोध्य नहीं होने के कारण योग्यता-विशेष नहीं है-अतः कर्मसंज्ञा नहीं होगी। ऐसे स्थलों में योग्यता-विशेष का कथञ्चित् निर्वाह भी किया जाय तो उसकी अपेक्षा निषेध-वाक्य का प्रयोग करना कहीं अच्छा है, जो अनुभव से भी सिद्ध है । 'काशीं न गच्छति' में योग्यता-विशेष की आवश्यकता नहीं है, उद्देश्य होने की योग्यता मात्र से काम चल जाता है । वास्तव में निषेध-वाक्यों में भी प्राप्त वस्तु ( योग्य कर्म ) का ही निषेध होता है । यदि गमन सर्वथा अप्राप्त हो तो 'न गच्छति' का कोई अर्थ ही नहीं । ____ अनीप्सित कर्म के विषय में पूर्वपक्ष उठाते हुए नागेश कहते हैं कि पराधीनता के कारण विषभक्षणवाले उदाहरण में तो क्रिया के फलाश्रय के रूप में उद्देश्यता की सिद्धि हो जायगी, किन्तु 'चोरान् पश्यति', 'अन्नं भक्षयन् विषं भुङ्क्ते' ( द्वेष्य कर्म ), 'ग्रामं गच्छन् तृणं स्पृशति' ( उदासीन कर्म ) इत्यादि में चोर, विष तथा तण का कर्मत्व कैसे होगा ? प्रश्न यह है कि चोर विषय-सम्बद्ध चक्षुरिन्द्रिय के सम्बन्ध से दृश्यमान होने पर भी दर्शन का उद्देश्य नहीं है, अपितु उसका देखा जाना अनिष्ट होने के कारण वह द्वेष्य है। तृण के प्रति भी कर्ता की तटस्थता रहने के कारण वह भी उद्देश्य नहीं है। इस आशंका का समाधान 'तथायुक्तं चानीप्सितम्' इस पूर्वनिरूपित पाणिनि-सूत्र में है । अनीप्सित का अर्थ है-उद्देश्य नहीं होना । पुनः प्रस्तुत प्रक्रिया में 'तथायुक्त' भी 'प्रकृत धात्वर्थ के द्वारा प्रयोज्य फल के आश्रय' के अर्थ में है ( लघुमञ्जूषा १२२२ ) । तदनुसार इस सूत्र का सम्पूर्ण अर्थ करते हुए नागेश के पूर्वोक्त कर्मलक्षण से 'उद्देश्यत्व' हटा देने पर काम चल सकता है। तदनुसार प्रस्तुत धातु के अर्थरूप प्रधान व्यापार से उत्पाद्य प्रस्तुत धात्वर्थ फल का आश्रय होने वाला अनीप्सित कर्म है ( 'प्रकृतधात्वर्थप्रधानीभूतव्यापारप्रयोज्यप्रकृतधात्वर्थफलाश्रयत्वमनीप्सित-कर्मत्वमिति तदर्थात्' । -परमलघु०, १७५ )। यह लक्षण द्वेष्य तथा उदासीन कर्मों का संग्रह करने के लिए दिया गया है। द्विकर्मक धातु तथा अकथित कर्म पाणिनि ने 'अकथितं च' (१।४।५१) सूत्र के द्वारा एक दूसरे प्रकार के कर्म का भी विधान किया है, जो अपादानादि विशेष संज्ञाओं से २ अविवक्षित हो। किन्तु १. 'तद्विशेषश्च व्यापारसमकालिकस्तटस्थजनगम्यः' । ----प० ल० म०, पृ० १७५ २. 'अपादानं सम्प्रदानमधिकरणं कर्म करणं कर्ता हेतुरित्यतैविशेषरित्यर्थः'
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy