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________________ १७२ संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन यह अविवक्षा कुछ निश्चित सकर्मक धातुओं के प्रयोग में होती है, जिन्हें द्विकर्मक धातु कहते हैं । ये धातु एक तो ईप्सित कर्म ग्रहण करते हैं और दूसरा यह अकथित या अविवक्षित कर्म भी उनके साथ रहता है । जैसे-गां दोग्धि पयः । इनमें पयस् ईप्सित होने के कारण सामान्य या मुख्य कर्म है और 'गौ' मूलत: अपादान का भागी होने पर भी वहाँ अविवक्षित होने के कारण प्रकृत सूत्र से अकथित कर्म है। अपादान की विवक्षा होने पर इसमें पञ्चमी विभक्ति हो सकती है-गोः दोग्धि पयः । गाय से दूध को पृथक् करना विवक्षित है। इसके अतिरिक्त गौ से पयस् का सम्बन्धमात्र विवक्षित हो तो उसमें षष्ठी भी हो सकती है । यद्यपि यह विवक्षा द्विकर्मक धातुओं की सूची में परिगणित प्रायः सभी धातुओं में सम्भव है, तथापि याच्, प्रच्छ और भिक्ष धातुओं के योग में केवल कर्मसंज्ञा ही होती है ( कैयट २, प० २६६-७ ) । द्विकर्मक धातुओं की सूची का विकास द्विकर्मक धातुओं के परिगणनार्थ पतञ्जलि ने एक कारिका दी है दुहियाचिरुधिप्रछिभिक्षिचित्रामुपयोगनिमित्तमपूर्वविधौ । ब्रुविशासिगुणेन च यत्सचते तदकोतितमाचरितं कविना॥ -भाष्य २, पृ० २६४ अर्थात् दुह, याच, रुध्, प्रच्छ, भिक्ष तथा चि-इन धातुओं के प्रयोग में ( पयस् आदि ) उपयोग में आने योग्य वस्तुओं के निमित्त पदार्थ को, यदि उसका पूर्वोक्त किसी कारक में विधान नहीं हुआ हो तथा ब्रू और शास्-इन दोनों के गुण ( साधन, ( त० बो० पृ० ४०९)। किन्तु वक्ष्यमाण भाष्यकारिका में स्थित 'अपूर्वविधि' शब्द पर टिप्पणी करते हुए भट्टोजिदीक्षित कहते हैं कि पूर्वोक्त अपादानादि संज्ञाओं का विषय नहीं होने से ही अकथित कर्म होता है । हेतु तथा कर्तृसंज्ञाओं का विषय होने पर परवर्ती संज्ञा कर्म की बाधक होगी। वे एक दूसरा मत भी देते हैं कि प्राचीन आचार्यों के अनुसार 'पूर्व' शब्द अन्यमात्र का उपलक्षण है, अतः वक्ष्यमाण हेतु और कर्तृ संज्ञाओं के विषय में अतिप्रसंग नहीं होगा। -श० को० २, पृ० १३०-१ १. 'यद्यपि गोरवधिभावो विद्यते, तथाप्यविवक्षिते तस्मिन्निमित्तमात्रविवक्षायामुदाहरणोपपत्तिः'। -पदमजरी १।१५१ __ २. 'अपादानत्वमात्रविवक्षायां तु पञ्चम्येव । गोः क्षीरविशेषणत्वे तु षष्ठी । तेन गोः पयो दोग्धीत्यपि प्रयोगः साधुरेव' । -प्रौढमनोरमा, प० ४८७ ३. भाष्य की कारिका में छन्द ( त्रोटक-४ सगण ) की रक्षा के लिए प्रच्छ को 'प्रछि' पढ़ा गया है, जिसके समर्थन में भट्टोजिदीक्षित आगम के विधान की अनित्यता बतलाते हैं - "इह प्रछीत्यत्र 'छे च' इति तुङ् न कृतः। आगमशासनस्यानित्यत्वात् 'सनाद्यन्ता धातवः' 'इको यणचि' इतिवत्"। -श० कौ० खण्ड २, पृ० १३०
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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