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________________ संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्वानुशीलन जाते हुए राह में ही मर गया ) - इस वाक्य में काशी फलाश्रय नहीं है, क्योंकि गमनक्रिया का संयोग रूप फल तो काशी को मिला नहीं - ऐसी स्थिति में उक्त फलाश्रय के रूप में उद्देश्य होने के कारण ( क्योंकि कर्ता को काशी तक पहुँचना अभीष्ट था ) काशी को कर्मसंज्ञा हुई है । गमनकर्ता की 'काशी संयोगाश्रय हो' इस इच्छा का विशेष्य काशी ही है । १७० एक दूसरी शंका का समाधान भी नागेश साथ ही करते चलते हैं- यदि कोई व्यक्ति काशी जा रहा हो तो ‘काशीं गच्छति, न प्रयागम्' इस प्रकार के प्रयोग की ( जिसमें प्रयाग को कर्म दिखलाया गया है ) असिद्धि हो जायगी, क्योंकि प्रयाग तो फलाश्रय के रूप में उद्देश्य नहीं है । इस असिद्धि के निवारणार्थ नागेश कहते हैं कि कर्म के पाणिनीय लक्षण में जो 'ईप्सिततम' पद का प्रयोग हुआ है उसकी स्वार्थ- सहित योग्यता - विशेष अर्थ में लक्षणा होती है। कहने का अर्थ है कि प्रयाग में भी फलाश्रय के रूप में उद्देश्य होने की योग्यता है जो भले ही वाच्यतया प्रतीत नहीं हो रही है, किन्तु लक्ष्य-रूप में तो है ही ' । इस निषेधमूलक कर्मसंज्ञा की सिद्धि के लिए नागेश को अपने कर्मलक्षण में ईषत् संशोधन करना पड़ा है । किन्तु इससे एक बड़ा लाभ यह हुआ है कि जहाँ कहीं भी नत्र से विशिष्ट कर्म ( या अन्य कारक भी ) दिखलायी पड़े वहाँ योग्यता - विशेष रहने के आधार पर उनके कर्मत्वादि की व्यवस्था सुकर हो जायगी । चैत्र दूसरा काम कर रहा हो और यदि कोई पूछे कि क्या वह ग्राम जा रहा है या ओदन पका रहा है ? तो उत्तर होगा- -न तो वह ग्राम जा रहा है, न ओदन ही पका रहा है । तब ऐसी स्थिति में फलाश्रय के रूप में उद्देश्य नहीं होने पर भी ग्राम तथा ओदन को केवल उनकी फलाश्रयत्व - योग्यता के ही बल पर कर्मत्व का उपपादन करके द्वितीया विभक्ति लगा सकते हैं । ऐसी परिस्थिति में कोई पराधीन व्यक्ति पीटे जाने के फलस्वरूप विष खाता है तो विष भी वहाँ तथोक्त फल आश्रय के रूप में उद्देश्य ही है । यहाँ योग्यता - विशेष का निवेश करने की आवश्यकता नहीं है । पतञ्जलि ने जो अनीप्सित विष को ईप्सित बतलाया है उस तथ्य का भी समर्थन इसी प्रकार हो जाता है कि ताडन - भय से कोई विष को भी अभीष्ट समझता है । इसी रूप में 'कशाभिहतः कारागारं गच्छति' • ( कोडे से मार खाकर कारागार जाता है ) -- इस वाक्य में कारागार भी फलाश्रय के रूप में उद्देश्य होने से कर्म है । ऊपर हमने देखा है कि फलाश्रय के रूप में उद्दिष्ट होने की योग्यता यदि किसी में हो तो वह 'कर्म' कहला सकता है, यद्यपि वर्तमान काल में वह उस रूप में उद्देश्य नहीं भी हो । किन्तु यह योग्यता सामान्य नहीं, विशेष प्रकार की होती है । यह १. 'तथा च प्रकृतधात्वर्थ प्रधानीभूतव्यापार-प्रयोज्य - प्रकृतधात्वर्थ फलाश्रयत्वेनोदद्देश्यत्वयोग्यताविशेषशालित्वं कर्मत्वम् । तच्च प्रयागस्याप्यस्तीति कर्मत्वं तस्य सुलभम्' । - प० ल० म०, पृ० १७३-४
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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