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________________ कर्तृ-कारक १२५ कहलाता है । ज्ञान, इच्छा तथा कृति से युक्त ईश्वर की सत्ता के प्रमाण उपनिषद्वाक्यों में दिखलाये गये हैं। नव्यन्याय में ज्ञान, इच्छा तथा प्रयत्न को समन्वित करके कृति या प्रयत्न के रूप में संक्षिप्त किया गया है। इसका कारण यह है कि ये तीनों 'हेतुपनिबन्धन समुदाय' हैं -ज्ञान से इच्छा उत्पन्न होती है और इच्छा से कृति । निषेध-मुख से भी इसे समझा जा सकता है, क्योंकि किसी विषय की इच्छा तब तक उत्पन्न नहीं होती जब तक उसका ज्ञान न हो और जब तक इच्छा नहीं होती तब तक उसके प्रति प्रयत्न भी उपपन्न नहीं होता। इन तीनों में अन्तिम स्थिति प्रयत्न की है, जिसे नैयायिक लोग 'कृति' भी कहते हैं। इस कृति में ही अन्य दोनों का समावेश हो जाता है, अतः इसे आधार मानकर न्याय में कर्ता के लक्षण का प्रवर्तन हुआ है। भवानन्द ___ इसी आधार पर भवानन्द ने कारकचक्र में कर्ता का लक्षण दिया है--'अनुकूलकृतिमत्त्वं कर्तृत्वम्' अर्थात् क्रिया के अनुकूल कृति को धारण करने वाला कर्ता है। अलग-अलग क्रियाओं के अनुकूल कृति भी अलग-अलग होती है। तदनुसार उन-उन क्रियाओं के कर्तृत्व का उपपादन होता है। इस लक्षण के समर्थन में भवानन्द कर्त शब्द का निर्वचन करते हुए योगार्थत्वसाधन करते हैं कि कृत तथा अकृत के विभाग द्वारा कृ-धातु की यत्नार्थकता सिद्ध होती है। स्पष्टीकरण यह है कि ओदन-पाक के साथ-साथ यदि अविच्छेद्यतया द्विदल का पाक भी हो रहा हो तो हम कहते हैं कि द्विदल का पाक तो अपने आप हो गया, मैंने नहीं किया ( न मया कृतः ) । ओदनपाक में कृति लगी है, अतः कहते हैं कि मैंने ओदन का पाक किया है (कृतः ), द्विदल का नहीं। अतएव यत्न होने पर कृत और नहीं होने पर अकृत -ऐसा विभाग किया जाता है। इससे सिद्ध होता है कि कृ-धातु का प्रयोग प्रयत्न के ही अर्थ में होता है। दूसरी ओर तृच्-प्रत्यय आश्रयार्थक है। इस प्रकार कर्ता यत्नाश्रय का पर्याय है। यत्न की आश्रयता केवल चेतन में ही होती है, अतः मुख्य कर्तृत्व चेतन में तथा काष्ठादि अचेतन में गौण या लाक्षणिक कर्तृत्व मानने की प्रथा पूरे न्यायशास्त्र में है। १. ज्ञानसत्ता---'यः सर्वज्ञः सर्ववित्' । -मुण्ड० १।१।९ इच्छासत्ता-- 'सोऽकामयत बहु स्यां/प्रजायेय' । -तैत्ति० २।६ कृतिसत्ता--'तन्मनोऽकुरुत'। -बृह. १।२।१ २. (क) 'फलेच्छां प्रति फलज्ञानमात्रं कारणम् । सुखज्ञानेनैव सुखेच्छा उत्पद्यते'। -न्या० सि० मु० ( १४७ कारिका ) की वृत्ति । (ख) 'आत्मजन्या भवेदिच्छा इच्छाजन्या भवेत्कृतिः । ___ कृतिजन्या भवेच्चेष्टा चेष्टाजन्या भवेक्रिया' ॥ -न्या. को, पृ० १३७ पर उपप्त । १० सं०
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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