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________________ १२४ संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्वानुशीलन है। चूंकि कुठार देवदत्त-रूप कारकान्तर से प्रयोज्य है अतः उसके कर्तृत्व का प्रसंग नहीं होगा। पूर्वपक्षी इस प्रकार उपर्युक्त लक्षण की संगति बैठाता है। किन्तु भवानन्द को इस विशेषण के सामर्थ्य पर आपत्ति है। जितने संसारी प्राणी कर्ता के रूप में विवक्षित होते हैं उन्हें ईश्वर ही विभिन्न क्रियाओं में प्रयोजित करता है। उपर्युक्त उदाहरण में देवदत्त ( कर्ता ) भी कारकान्तर ( ईश्वर ) से प्रयोज्य है, अतः उसे भी कर्ता नहीं कह सकते; क्योंकि लक्षणानुसार तो कर्ता को कारकान्तर से अप्रयोज्य रहना चाहिए। भवानन्द पूर्वपक्ष की ओर से 'अप्रयोज्य' का परिष्कार करते हैं कि फल के अनुकूल, कारकान्तर के रूप में लक्षित पदार्थ से उत्पन्न होनेवाले व्यापार का आश्रय न होना ही अप्रयोज्यता है, तब तो कुम्भकार भी कर्ता नहीं हो सकता। इसका कारण यह है कि दण्डादि कुम्भकार से भिन्न होने के कारण कारकान्तर है, उससे उत्पन्न होने वाले संयोगादिरूप व्यापार का आश्रय चक्रादि है, कुम्भकार नहीं । अतः व्यापार का अनाश्रय कुम्भकार अप्रयोज्य अर्थात् अकर्ता है। अप्रयोज्य का इसके अतिरिक्त कोई दूसरा अर्थ सम्भव नहीं दीखता, इसलिए उपर्युक्त कर्तृलक्षण अनुपपन्न है । नागेशभट्ट भी परमलघुमंजूषा में इस लक्षणांश का उद्धरण देकर खण्डन करते हैं, किन्तु उनकी खण्डन-विधि दूसरे सिद्धान्त पर आश्रित है। वैयाकरण-मत में करणादि अचेतन पदार्थों को भी विवक्षा से मुख्य कर्तृसंज्ञा होती है । यदि कर्ता के उक्त लक्षण को स्वीकार कर लें तो 'स्थाली पचति' 'असिश्छिनत्ति' इत्यादि वाक्यों में स्थाली प्रभृति को कर्तसंज्ञा नहीं हो सकती, क्योंकि अचेतन होने के कारण स्थाली दूसरे कारकों को प्रयोजित नहीं कर सकती है और दूसरी ओर, कारकान्तर ( चैत्रादि मुख्य कर्ता ) से प्रयोज्य भी है । जहां तक लक्षण के दूसरे भाग का प्रश्न है तो हम देखते हैं कि ज्ञान, इच्छा और प्रयत्न का आधार होना नव्यन्याय में ही नहीं, दर्शन के सभी सम्प्रदायों में कर्ता का मान्य लक्षण है। इसी के बल पर ईश्वर या उस प्रकार की किसी चेतनशक्ति के द्वारा जगत् के निर्माण की भी उपपत्ति की गयी है। धर्मराजाध्वरीन्द्र ने वेदान्तपरिभाषा में ब्रह्म के जगज्जन्मादिकारणत्व-रूप तटस्थ लक्षण का निरूपण करते हुए 'कारण' का अर्थ 'कर्ता' किया है तथा इससे अविद्यादि जड़-समूह की कारणता की व्यावृत्ति होने की बात कही है। इसी प्रसंग में कर्तृत्व का लक्षण हुआ है-'तत्तदुपादानगोचरापरोक्षज्ञानचिकीर्षाकृतिमत्त्वम्' (विभिन्न उत्पाद्य वस्तुओं के उपादान कारणों से सम्बद्ध साक्षात् ज्ञान, उन्हें उत्पन्न करने की इच्छा तथा तद्विषयक कृति या प्रयत्न धारण करना कर्तृत्व है )२ । यह दूसरी बात है कि इन लक्षणों से सम्पन्न ब्रह्म ईश्वर १. ५० ल० म०, पृ० १७० । २. वे० प०, पृ० १५२।
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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