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________________ १२६ संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन उपर्युक्त स्थिति में जहाँ अन्य-विषयक ( जैसे ओदन-पाक से सम्बद्ध ) कृति से नान्तरीयक ( अविच्छेद्य ) रूप से द्विदलपाकादि सम्पन्न होते हैं वहाँ द्विदलपाकादि के विषय में मुख्य कर्तृत्व की व्यवस्था नहीं हो पाती है, क्योंकि कर्ता तो ओदनपाक के अनुकूल कृति ( यत्न ) कर रहा है, द्विदल-पाक अपने आप हो रहा है । इसे भी गतार्थ करने के लिए 'साध्यत्व से अभिन्न विषयत्व' विशेषण का निवेश उपर्युक्त लक्षण में करने का परामर्श लक्षणकार देते हैं। तदनुसार जिस प्रकार ओदनपाक कृतिसाध्य है उसी प्रकार उस पाक से सम्बद्ध होने के कारण द्विदलपाक भी कृतिसाध्य ही है। पिष्टक-भोजन करनेवाला व्यक्ति न केवल पिष्टक ही खाता है प्रत्युत उसके अन्दर भरे गये गुड़, दाल या अन्य पदार्थों को भी खा ही जाता है, क्योंकि अन्दर भरा गया पदार्थ पिष्टक से सम्बद्ध है। एक की कृतिसाध्यता दूसरे सम्बद्ध पदार्थ की कृतिसाध्यता उत्पन्न करती है । यदि साध्यता के रूप में विषयता नहीं मानें तो 'भोजनं करोति' के समान 'सुखं करोति' का प्रयोग होने लगे। स्थिति यह है कि भोजन के अनुकूल कृति के उद्देश्य ( विषय ) के रूप में सुखादि विषय हैं, तथापि भोजनकर्ता को सुखकर्ता नहीं कह सकते । ओदन और द्विदल के पाकों के समान भोजन और सुख नान्तरीयक है, उनमें विषयता-सम्बन्ध भी है; किन्तु भोजनकर्ता का तत्काल साध्य भोजन है, सुख नहीं। पाकों के कर्ता एक ही हैं, किन्तु इन दोनों के कर्ता एक नहीं हैं । इसी प्रकार यागादि कति के उद्देश्य के रूप में वर्तमान स्वर्गादि विषय हैं, किन्तु यागकर्ता ( यागं करोति ) ही स्वर्ग का कर्ता ( स्वर्ग करोति ) नहीं। यागकर्ता के लिए याग साध्य है, स्वर्ग नहीं । इसलिए दोनों के कर्तृत्व भिन्ननिष्ठ हैं । मीमांसक यागकर्ता तो यजमान को : मानते हैं, किन्तु स्वर्गकर्ता धर्मरूप अदृष्ट को कहते हैं ( अदृष्ट स्वर्ग उत्पन्न करता )। ऊपर के उदाहरण में भी भोजन करनेवाला व्यक्ति सुख उत्पन्न नहीं करता- दोनों के कर्ता अलग हैं । गदाधर गदाधर भी व्युत्पत्तिवाद में चेतन पदार्थों का मुख्य कर्तृत्व तथा अचेतन का गौण कर्तृत्व मानते हुए२ भवानन्द की मान्यताओं का पोषण करते हैं। विभक्ति तथा आख्यातविषयक आनुषंगिक प्रश्नों का समाधान करते हुए वे अचेतन के कर्तृत्व का विवेचन करते हैं । क-धातु की यत्नवाचकता होने से प्रयत्नवान् पदार्थ को ही कर्ता कहा जा सकता है, तथापि काष्ठादि अचेतन पदार्थों की स्वतंत्र रूप से विवक्षा होने पर उनका कर्तृत्व सूपपाद्य होता है। स्वतंत्र-शब्द के परिष्कार में गदाधर प्राचीन पद्धति १. विषयत्वं च साध्यत्वेन बोध्यम् । तेन भोजनकृतेरुद्देश्यत्वेन सुखादिविषयकत्वेऽपि तत्कर्तुर्न सुखकर्तृत्वम्' । -कारकचक्र, पृ० १६ २. 'कर्तृत्वं च मुख्यं क्रियानुकूलकतिरेव' । एवं 'कर्तपदमपि व्यापारादिमत्यचेतनादी भाक्तमेव । अचेतनादौ स्वरसतः कर्तृपदाप्रयोगात्'।-व्युत्पत्तिवाद, पृ० २१०, २१४ ।
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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