SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि पूर्वोक्त विचार के विपरीत यह तर्क उपस्थित किया जाता है, यह ठीक है कि प्राकृत के 95 प्रतिशत शब्द संस्कृत से उत्पन्न हैं किन्तु उन 5 प्रतिशत शब्दों का क्या होगा जिनकी व्युत्पत्ति संस्कृत से नहीं होती। संस्कृत शब्द रूप वस्तुतः आधार शिला है क्योंकि वही पुराने भारतीय रूपों का प्रतिनिधित्व करती है किन्तु कभी-कभी कुछ पुराने भारतीय मुख्य शब्द रूपों के लिए प्राकृत शब्द रूपों की व्याख्या आवश्यक हो जाती है जो कि संस्कृत में बिल्कुल नहीं मिलते। इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि प्राकृत जनता की मूल भाषा थी और उसके बहुसंख्यक शब्द परिष्कृत प्राकृत में ले लिए गए। क्या इस कारण यह परिभाषा बना दी जाए कि ये शब्द-प्रकृतिः संस्कृतं तत्र भवं तत आगतं वा प्राकृतम् प्राकृत वैयाकरणों की प्राकृत की व्युत्पत्ति सम्बन्धी परिभाषाओं को सहज ही स्वीकार नहीं किया जा सकता, जैसा कि कुछ विद्वान् मानते हैं। डा० पी० एल० वैद्य का विचार है कि यह उचित नहीं जान पड़ता कि प्राकृत की उत्पत्ति के विषय में प्राकृत के वैयाकरण लोग अपना मन्तव्य दें। उन वैयाकरणों का मुख्य काम भाषा को सुबोध बनाना था, जिस भाषा में विस्तृत साहित्य प्राप्त थे। भाषा में एक-रूपता बनाए रखने के लिए, भाषा का ज्ञान कराने के लिए-उदाहरणस्वरूप स्त्रियों, बच्चों आदि के लिए भाषा को सुगम्य एवं सरल बनाने के लिए व्याकरण लिखा जाता था। यह सही है कि प्राकृत भाषा के व्याकरण का ढांचा संस्कृत व्याकरण के आधार पर बनाया गया जिनमें मुख्यतः पाणिनि, कातन्त्र, कलाप और हेम आदि हैं। इन्हीं वैयाकरणों की पारिभाषिक शब्दावलियों का भी प्रयोग किया गया। ऐसा करते समय वे प्रायः प्रकृति शब्द का प्रयोग करते थे जो कि उत्पत्ति के अर्थ में प्रयुक्त न होकर आधार (Base) के अर्थ में प्रयुक्त हुआ था। अच्छा होगा हम हेमचन्द्र की उस व्याख्या को ध्यान में रखें जो कि-प्रकृतिः संस्कृतं, तत्र भवं तत आगतं वा प्राकृतम् कहा गया है। यदि यहाँ हम प्रकृति शब्द की तुलना करें तो यह स्पष्टतया आधार (Base) के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy