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________________ वाक्य-रचना 433 (ग) अधिकरण कारक के विशिष्ट प्रयोग करण के अर्थ में तुह जलि महु पुणु बल्लहइ बिहुँ वि न पूरिअ आस (हेम० 8/4/383) जल से वल्लभ से। अङ्गहि अङ्ग न मिलिउ (हेम० 8/4/332)-अंग से अंग (घ) निर्विभक्तिक प्रयोग अपभ्रंश की सबसे बड़ी भारी विशेषता है निर्विभक्तिक प्रयोग। इस दृष्टि से प्रथमा और द्वितीया के रूप एक ही तरह के दीख पड़ते हैं। वाक्यों के प्रयोग से ही अर्थ में प्रथमा और द्वितीया का भेद किया जाता है: प्रथमा- 1. कायर एम्व भणन्ति (हेम० 8/4/376) 2. धण मेल्लइ नीसासु (हेम० 8/4/430) द्वितीया-1. सन्ता भोग जु परिहरइ (हेम० 8/4/389) 2. जइ पुच्छह घर वड्डाइं (हेम० 8/4/364) अपभ्रंश में करण, अधिकरण और अपादान कारकों के प्रयोग निर्विभक्तिक नहीं होते। अवश्य संबंध (षष्ठी) के कुछ निर्विभक्तिक प्रयोग मिलते हैं, अधिकरण में तो इकारान्त प्रयोग मिलते हैं। सम्प्रदान का अपना कोई पृथक् चिह नहीं मिलता। इस तरह अपभ्रंश की कारक विभक्तियाँ तीन समूहों में एकरूपता रखती है-1. प्रथमा और द्वितीया 2. करण, अधिकरण और अपादान और 3. सम्बन्ध और सम्प्रदान। पहले जिस परसर्ग का उल्लेख किया गया है वह अपभ्रंश में विभक्तियों के बाद भी युक्त होता था। (क) क्रियार्थक प्रयोग अपभ्रंश के क्रिया प्रयोगों में कर्मणि भावे प्रयोग विशेष रूप से परिलक्षित होता है। हेमचन्द्र के अपभ्रंश दोहों के एक चरण में कर्मणि तथा कर्तरि दोनों प्रयोग दीख पड़ता है विट्टीए ! मइ भणिय तुहं मा कुरु वङ्की दिट्टि (हेम० 8/ 4/330)।
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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