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________________ हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि स्वसु हो गया है। इसका विकास स्वस्सु (पालिरूप) > सु के क्रम से हुआ है । 386 यह प्रत्यय प्रायः शब्द के अन्त में - ए और -इ लगाकर बनने वाले तथा कथित अपभ्रंश आज्ञावाचक रूप के साथ लगता है: - करिज्जसु ( प्राकृत पैं० 1,39:41:95:144 आदि), सलहिज्जसु < श्लाघस्व, भणिज्जसु < भण और < ठविज्जसु < स्थापय हैं ( प्राकृत पैंगलम् 1,95,109,144) | अपभ्रंश में कर्मवाच्य रूप कर्तृवाच्य के अर्थ में भी काम में लाया जाता है, इसलिये इन रूपों में से अनेक रूप कर्म वाच्य में आज्ञावाचक अर्थ में भी ग्रहण किये जा सकते हैं (पिशेल 461 ) जैसे, मुणिज्जसु और इसके साथ साथ मुणिआसु ($पिशेल 467), दिज्जसु (8466); इसके साथ ही साथ देज्जहं रूप भी मिलता है। (iii) उ का सम्बन्ध भी 'स्व' से जोड़ा जाता है। डॉ० सुनीति कुमार चटर्जी ( उक्ति व्यक्ति प्रकरण - भूमिका $74 पृ0 59 ) ने भी स्व से ही उ की व्युत्पत्ति दी है। प्रा० भा० आ० कुरुष्व > करस्सु >* करहु > करु । डॉ० तगारे ($139, पृ० 298) म० पु० ए० व० 'उ' को अन्य पु० ए० व० 'उ' (प्रा० भा० आ० तु) की अभिवृद्धि मानते हैं। और इसके लिये उदाहरण अणुहवु < अनुभवतु दिया है। उ का उदाहरण- पेक्खु, भणु, जाणु । (iv) ओ उ का ही विकसित रूप है- करहु उ करो । (v) इ का रूप परवर्ती अपभ्रंश में अधिक पाया जाता है । इसकी उत्पत्ति हि से मानना अधिक समीचीन होगा। प्रा० भा० आ० धि > हि > इ । डॉ० पिशेल (8461 ) का कहना है कि हेमचन्द्र ने (4/387) एँ और इ में समाप्त होने वाले जिन रूपों को अप्रभंश में आज्ञा वाचक बताया है वे ही विध्यर्थक ऐच्छिक रूप में भी प्रयुक्त होते हैं :- करे ँ < करे < करें: < कुर्याः, इसी से करि रूप भी बना। विअरि < विचारयेः, ठवि < स्थापयेः
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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