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________________ क्रियापद 387 और धरि < धारयेः हैं, वस्तुतः =* विचारेः, * स्थापेः और * धारेः हैं (प्राकृत पैंगल 1,68,71 और 72) जोइ < द्योतेः < पश्य है (हेम० 4,364 और 368); रोइ <* रोदेः < रुद्याः, चरि < चरेः, मेल्लि का अर्थ त्यजेः है, करि < करे: < कर्याः और कहि <* कथेः < कथयेः है (हे० 4/368;387,1 और 3:422,14)। (vi) शून्य रूप या अ :- इसका विकास प्रा० भा० आ० अ (/पठ, चल, भू, भव) से माना जाता है। म० भा० आ० काल में धातुओं को अदन्त होने के कारण अपभ्रंश में यह अ >o हो गया (कर + ० = कर, पठ + 0 = पठ Vहो + ० = हो) अपभ्रंश तथा न० भा० आ० में भी ये रूप सुरक्षित हैं। उदाहरण-पुच्छ, चिन्त, पसिय, गृण्ह,-आस ( आस), मुय (स्मुक), न० भा० आ० चल < म० भा० आ० चल < प्रा० भा० आ० चल, पठ, हस आदि। मध्यम पुरुष ब० व० ह, हु का संबन्ध ए० व० के रूप 'स्व' से जोड़ा जाता है, जो ब० व० के साथ भी प्रयुक्त होने लगा है। डॉ० तगारे ने (8138, पृ० 300) इसकी व्युत्पत्ति * अथु < प्रा० भा० आ० (अ) थ वर्तमान म० पु० ब० व० तथा उ (< प्रा० भा० आ० तु) से दी है। प्रा० भा० आ० थ > ह = होह; प्रा० भा० आ० थस > हु = णमहु, बुज्झहु, करेहु, करहु (हे० 4/346), कुणेहु, कुणहु, कुणह रूप भी प्राकृत पैंगलम् में मिलता है। पिअह < पिबत (हम० 4/422,20) ठवहु < स्थापयत और कहेहु < कथयत (प्रा० पैंगल 1,119 और 122) इच्छहु, इच्छह, देहु, मग्गहु (हेम०. 4/384)। अन्य पुरुष ए० व० उ का विकास प्रा० भा० आ० आज्ञा प्र० पु० ए० व० तु से हुआ है। यह प्राकृत और अपभ्रंश दोनों में होता है :-करोतु, * करतु > म० भा० आ० करउ। शौरसेनी, मागधी और ठक्की में तु > दु हो गया है :-पसीददु < प्रसीदतु, कथेदु < कथयतु *
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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