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________________ क्रियापद 385 मध्यम० पु० ए० व०-०या अ (इ, ए, उ), अह, अहु अन्य० पु० ए० व०- (अ) उ, अन्य पु० ब० व०- (अ) न्तु मध्यम० पु० ब० व०- (अ) हु उत्तम पु० ए० व० में आज्ञा वाचक के लिये कोई अपने रूप नहीं हैं । किन्तु पिशेल ने (8470 ) उ० पु० ब० व० वर्तमान काल हुँ=जाहुँ (हे० 4 / 385 ) का विधान किया है। यह वस्तुतः वर्तमान काल का ही रूप है । मध्यम पुरुष ए० व० (i) 'हि' की उत्पत्ति प्रा० भा० आ० के विकरणहीन धातु के आज्ञा वाचक मध्यम पु० ए० व० तिङ् चिह्न धि ( कृधि, जुहुधि) से मानी जाती है। इस प्रकार यह रूप समस्त भारत में था किन्तु पूर्वी अपभ्रंश में इसका बहुत अधिक प्रचलन नहीं था । पिशेल (8468) का कहना है कि धातु का यदि ह्रस्व स्वर में समाप्ति हो तो नियम यह है कि संस्कृत के समान ही इसका प्रयोग मध्यम पु० ए० व० आज्ञा वाचक में किया जाता है और यदि उसके अन्त में दीर्घ स्वर आये तो उसमें समाप्ति सूचक चिह्न - हि का आगमन होता है । अ० मा० में अ में समाप्त होने वाले धातु अधिकांश में, महा०, जै० महा० और माग० में कभी-कभी अन्त में-हि लगा लेते हैं, जिससे पहले का अ दीर्घ कर दिया जाता है। ऐसा रूप बहुधा अप० में भी पाया जाता है किन्तु इस बोली में आ फिर ह्रस्व कर दिया जाता है । पेक्खहि (पिंगल 1,64) पेक्खु भी मिलता है ( हे० 4/419,6), पलित्ता आहि < परित्रायस्व (मृच्छ० 175,22), कराहि और करहि (पिंगल 1,149, हेम० 4,385) और करु भी मिलता है (हे० 4/330, 2) सुणेहि < श्रृणु (पिंगल 1,62) | 1 (ii) सु की उत्पत्ति प्रा० भा० आ० के आत्मनेपदी आज्ञा म० पु० ए० ब० स्व - 1 - ( ष्व) से है । पिशेल ($467) के अनुसार यही
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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