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________________ 218 हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि जाते हैं। हेमचन्द्र ने (8/1/180) बताया है कि 'अ' या 'आ' के साथ प्राकृत या अपभ्रंश में 'य' श्रुति पाई जाती है। कुछ प्राकृत वैयाकरणों के अनुसार प्राकृत में विकल्प से 'य' श्रुति तथा 'व' श्रुति वाले प्रयोग पाये जाते हैं-गअणं, गयणं, सुहओ, सुहवो आदि । अपभ्रंश में पदान्त उद्धृत्त स्वरों के स्थान पर 'य' श्रुति प्रायः देखी जाती है। कभी-कभी उद्धृत्त स्वर अ की जगह इ तथा 'उ' भी देखा जाता है, उद्धृत स्वर की रक्षा भी की जाती है। पिशेल महोदय का कहना है कि 'जहाँ पद के बीच में स्वर मध्यगत व्यञ्जन लुप्त होता है, उन दो स्वरों के बीच 'य' श्रुति का विकास हो जाता है, यह 'य' श्रुति-जैन हस्त लेखों में तथा सभी विभाषाओं में लिपि कृत होती है, और अर्ध-मागधी, जैन महाराष्ट्री तथा जैन शौरसेनी का खास लक्षण है। उनका यह भी कहना है कि जैनेतर हस्तलेखों में यह 'य' श्रुति नहीं मिलती। इस श्रुति का प्रचुर प्रयोग अ-आ के साथ ही होता है, किन्तु इसका अस्तित्व इ तथा उ के साथ अ, आ, आने पर भी देखा जाता है जैसे-'पियइ'-=पिबति) इन्दिय (=इन्द्रिय), हियय (हृदय), गीय (गीत), रुय (रुव), दूय (दूत) (प्रा० व्या० $187)।' व श्रुति का प्रयोग यद्यपि हेमचन्द्र के अपभ्रंश दोहों में व श्रुति नहीं दीख पड़ती किन्तु यह श्रुति अपभ्रंश में दृष्टिगत होती है। प्रायः उ, ऊ या ओ के पश्चात 'अ'-ध्वनि के रहने पर 'व' श्रुति पायी जाती है। अंसुव (=अंशुकः), कंचुव (=कंचुक), भुव (=भुज), हुवास (-हुताश) आदि। उक्ति व्यक्ति प्रकरण में भी ऐसे रूप दीख पड़ते हैं-रुवइ =रुदति), उवर (=उदर), केवइ (=केतकी) आदि । (1) उपान्त्य स्वर की प्रायः सुरक्षा की जाती है। (2) यद्यपि बोलचाल की अपभ्रंश में उद्वृत्त स्वरों को एकीकरण द्वारा संयुक्त स्वर कर देने का आभास मिलता है, तथापि साहित्यिक अपभ्रंश में यह प्रवृत्ति बहुत कम देखी जाती है।
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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