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________________ व्याकरण प्रस्तुत करने की विधि विधान किया है किन्तु अपभ्रंश रचनाओं में ण एवं ण्ह का ही रूप मिलता है । पिशेल ने अपभ्रंश के संस्करणों में ण का ही प्रयोग किया है । परमात्म प्रकाश में भी ण का ही प्रयोग मिलता है। अन्य रचनाओं में न एवं न्ह का प्रयोग भी मिलता है 217 (8) हेमचन्द्र के अपभ्रंश में यद्यपि ण एवं ड का ही विधान मिलता है तथापि परवर्ती अपभ्रंश में एवं न० भा० आ० में ड़ की ध्वनि भी पायी जाती है। ड़ वस्तुतः ड ही ध्वनि है । वस्तुतः यह कोई भिन्न ध्वनि नहीं है । कभी-कभी ल की जगह ड का उच्चारण भी पाया जाता है । न० भा० आ० की व्रज भाषा आदि में न, म्ह एवं ड आदि ध्वनियाँ ही पायी जाती हैं । (9) अपभ्रंश में अनुस्वार एवं अनुनासिक दोनों तरह के रूप पाये जाते हैं। विभक्त्यन्त रूप प्रायः सानुनासिक मिलते हैं । किन्तु अनुस्वार युक्त शब्द रूप भी देखे जाते हैं। यह प्रवृत्ति नव्य भारतीय आर्य भाषाओं के व्रज भाषा आदि में भी देखी जाती है । पिशेल महोदय (178) ने वर्तनी सम्बन्धी खास समस्या का कारण यह बताया है कि 'म० भा० आ० में अनुस्वार के अतिरिक्त हमें दो प्रकार के नासिक्य स्वर उपलब्ध होते हैं, जिनमें एक अनुस्वार के चिह्न से व्यक्त किया जाता है, दूसरा अनुनासिक के चिह्न से' । प्राकृत के करण बहुवचन में एक साथ - हिं, हिं, तथा - हि तीनों रूप - मिलते हैं। 'शुद्ध अनुस्वार तथा नासिक्य स्वर का विभेद यह है कि जहाँ का संबंध पूर्ववर्ती न्, म् से जोड़ा जा सके वहाँ अनुस्वार होगा, अन्यत्र नासिक्य स्वर। यह नासिक्य स्वर कहीं तो ° के द्वारा और कहीं के द्वारा चिह्नित किया जाता है ।' य ध्वनि तथा य श्रुति का प्रयोग जैन अपभ्रंश पुस्तकों में कभी-कभी 'य' के स्थान पर 'इ' तथा 'इ' के स्थान पर 'य' का भी प्रयोग पाया जाता है जैसे रय = रइ=रति, गय (=गइ=गति) संदेश रासक आदि में इसके बहुत से उदाहरण पाये
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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