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________________ षष्ठ अध्याय व्याकरण प्रस्तुत करने की विधि अपभ्रंश का क्षेत्रीय भेद अपभ्रंश भाषा के निर्णय करने में विघ्न पैदा करता है। मध्य भारतीय आर्य भाषाओं की बोलियों की ध्वनियों से इसकी भिन्नता दिखाना कठिन है। वस्तुतः पूरे मध्य भारतीय आर्य भाषाओं की ध्वनियाँ पूर्णरूपेण स्पष्ट नहीं हैं। प्राकृत की बोलियाँ महाराष्ट्री तथा शौरसेनी की ध्वनियों से कोई खास अन्तर नहीं रखती हैं। प्राचीन भारतीय आर्य भाषाओं का परिवर्तित रूप ही इनमें पाया जाता है जैसे - प्रा० भा० आ० त और थ और र्य य्य में (हेम० 8/4/286-98), पैशाची त को द, ण को न, ल को ञ (हेम० 8/4/303-24), मागधी में र को ल, स, ष को श, ज को य और प्रायः य की सुरक्षा रहती है इसी तरह प्राकृत वैयाकरणों ने ऋ और र दोनों की सुरक्षा की है। व्यंजन क, ख, त, थ, प और फ की जगह ग, घ, द, ध, ब और भ हो जाता है, अपभ्रंश में स्वर विनिमय तथा उनके दीर्घ या हस्व करने की स्वतन्त्रता है; जैसे एक ही कारक में 'हँ' या 'हुँ' और 'हे' या 'हु' प्रत्यय पाये जाते हैं, और ओ की जगह 'उ' हो जाता है। म का बहुत कम उच्चारण होता है क्योंकि इसके स्थान में प्रायः 'व' हो जाता है। विभक्ति के अन्त में 'स' के स्थान में 'ह' होता है और इससे अनेक रूप समझ में आ जाते हैं, जैसे मार्कण्डेय तथा अन्य लेखकों द्वारा प्रयुक्त 'देवहो' वैदिक 'देवासः' से मिलता जुलता है। इसी प्रकार 'देवहँ प्राकृत के 'देवस्स' से, 'ताहँ' 'तस्स' से, 'तहिँ तसिं से मिलता है। वस्तुतः शब्द रूपों के कारण ही अपभ्रंश प्राकृत से अपनी भिन्नता प्रकट करती है। ये ही शब्द रूप अपभ्रंश को म० भा० आ० भाषा की अन्य बोलियों से पृथक् करता है। इसके अतिरिक्त
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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