SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 188
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 158 हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि से सम्बन्ध न रखकर वैदिक से रखते हैं। मार्कण्डेय तथा अन्य लेखकों द्वारा प्रयुक्त 'देवहो' वैदिक 'देवासः' से अधिक मिलता जुलता है। इस तरह 'देवहँ' प्राकृत के 'देवस्स' से, 'ताहँ' तस्स से, तहिं तसि से और एहु ऐसो से लिया गया है। प्रधान अपभ्रंश नागर अपभ्रंश है। इसी का वर्णन हेमचन्द्र ने किया है। 12वीं शदी में लिखा गया हेमचन्द्र का अपभ्रंश व्याकरण न० भा० आ० की उत्पत्ति का कारण बना। पहले लिखा जा चुका है कि इस अपभ्रंश में स्थानीय बोलियों के लक्षण भी पाये जाते हैं। स्वभावतः गुजरात की बोली भी इससे मुक्त नहीं थी। प्रो० हरि वल्लभ भयाणी ने जैन सम्प्रदाय के आधार पर अपभ्रंश का भेद किया है। इसी प्रकार का विभाजन कुछ लोगों ने प्राकृत का भी किया था। दिगम्बरों की रची हुई अपभ्रंश और श्वेताम्बरों द्वारा रची गयी रचना। उन्होंने दिगम्बर अपभ्रंश का प्रभाव व्रजभाषा एवं पश्चिमी हिन्दी की बोलियों पर माना है। श्वेताम्बर या गौर्जर अपभ्रंश के कछ लक्षण गुजराती और मारवाड़ी में पाये जाते हैं। उन्होंने धनपाल की भविसत्त कहा और पुष्पदन्त की रचनाओं को दिगम्बर जैन अपभ्रंश से प्रभावित माना है। हरिभद्र का णेमिणाह चरिउ और सोमप्रभ के कुमारपाल प्रतिबोध की अपभ्रंश आदि रचनाओं में गौर्जर अपभ्रंश का अवलोकन किया है। हेमचन्द्र के उद्धृत अपभ्रंश दोहे शिष्ट नागर अपभ्रंश हैं। दूसरे पक्ष में सम्बन्ध भूत कृदन्त में 'इ प्रत्यय के ह विकरण वाले भविष्यत् रूप का अभाव है। कहीं आज्ञा द्वि० पुरुष एक वचन का उकारान्त रूप, सम्बन्ध भूत कृदन्त का इकारान्त रूप होता है, इसी के अनुरूप षष्ठी का प्रत्यय होता है। इस लक्षण के अनुसार श्वेताम्बर जैन में गौर्जर अपभ्रंश विशेष रूप से मिलते हैं। इसके विपरीत इ वाले तृतीया रूप के लक्षण दिगम्बर जैन अपभ्रंश में सामान्यतः पाये जाते हैं। पउमसिरी चरिउ की अपभ्रंश में विभिन्न लक्षण वाले कुछ रूप पाये जाते हैं। हेमचन्द्र की अपभ्रंश में न० भा० आ० के आधुनिक लक्षण पाये जाते हैं जिससे कि 12वीं शताब्दी ईस्वी के पूर्व की अपभ्रंश का स्पष्ट रूप परिलक्षित होता है।
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy