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________________ 116 हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि चन्द्रधर शर्मा और राहुल सांकृत्यायन के अनुसार पं० चन्द्रधर शर्मा गुलेरी" के अनुसार विक्रम की सातवीं शताब्दी से ग्यारहवीं तक अपभ्रंश की प्रधानता रही और फिर वह पुरानी हिन्दी में परिणत हो गयी, इसमें देशी की भी प्रधानता है । यह काल अपभ्रंश का उत्तप्त काल है। इस काल में यह भाषा कलाकारों का कण्ठहार बन चुकी थी । इसने इस समय परिनिष्ठित भाषा का रूप ले लिया था। इस काल में इस भाषा में बहुतेरे साहित्य लिखे जा चुके थे । यद्यपि इस काल में भी संस्कृत और प्राकृत रंगमंच के लिये स्वीकृत थी फिर भी अपभ्रंश इस समय जनता की भाषा हो चुकी थी। इसका विकास भी विस्तृत भूभाग तक हो चुका था । दक्षिण में सौराष्ट्र और संभवतः पूर्व में मगध तक फैल चुकी थी । 11वीं शताब्दी के मध्य में इसकी साहित्यिक भाषा उन्नति की पराकाष्ठा पर पहुँच चुकी थी । इस समय यह केवल साहित्यिक भाषा के लिये ही प्रसिद्ध नहीं हुई अपितु इसकी बहुत सी बोलियाँ हो गयीं । विभिन्न प्रान्तों में इसकी विभिन्न बोलियाँ प्रसूत हुईं। अपभ्रंश. इस समय तक बहुत आदर की दृष्टि से देखी जाती थी। 10वीं शताब्दी के राजशेखर ने इसे सुभव्य भाषा वाला कहकर पुकारा है। 11वीं शताब्दी तक आते-आते यह भाषा 'शिष्टों की भाषा' मात्र रह गयी पुरूषोत्तम ने एवं पूर्वी बौद्ध प्राकृत वैयाकरणों ने यही कहा है। उन लोगों ने अपभ्रंश को सुसंस्कृत लोगों के व्यवहार में लाने के लिये कहा है । परवर्ती लेखक जैसे मम्मट, वाग्भटालंकार (1123-56 ई०) के रचयिता वाग्भट, विष्णुधर्मोत्तर के लेखक रामचन्द्र, नाट्यय दर्पण के गुणचन्द्र, जिनदत्त (1200 शती) ने विवेक विलासित 8, 131 तथा अमर चन्द्र ने काव्य कल्पलतावृत्ति में और अन्त में महान वैयाकरण हेमचन्द्र ने निर्विरोध रूप से अपभ्रंश को संस्कृत और प्राकृत की भाँति साहित्यिक भाषा ही स्वीकृत की है। इन लोगों के कथन से प्रतीत होता है कि अपभ्रंश जन सामान्य की भाषा अथवा प्रान्तीय बोली के साथ शिष्टों
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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