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________________ अपभ्रंश भाषा 115 की भाँति केवल काव्य का विषय मात्र रह गयी थी। छठी और 7वीं शताब्दी तक भारत में एक ऐसा राजनीतिक उथल-पुथल हुआ जिसमें पुराने साम्राज्य लड़खड़ाने लगे। गुप्त साम्राज्य कई खण्डों में विभक्त हो चला था, कई राजनीतिक परिवर्तन होते रहे। उन्हीं राजनीतिक परिवर्तनों में आभीर जाति का भी साम्राज्य स्थापित हुआ। ये पश्चिमोत्तर भारत से पश्चिम दक्षिण, मध्य भारत एवं पूरब की ओर भी बढ़े और अपनी सत्ता स्थापित की। यह युग हर्षवर्धन की मृत्यु (ई० 648) के बाद का है। इसी समय को हम ‘राजपूत युग' भी कहकर पुकारते हैं। उन लोगों ने राजकीय भाषा. अपभ्रंश को बनाया। इसी से 7वीं शताब्दी में जिस अपभ्रंश का वर्णन किया गया है उसे आभीर आदि की भाषा कही गयी। प्रारम्भ में यह आभीर आदि की बोली भी रह चुकी थी। काव्यों में (नाटक आदि) आभीरादि की (नीच पात्रों) भाषा को अपभ्रंश कहते थे। आभीरादि या आभीरोक्ति का यह मतलब नहीं कि यह भाषा उनकी निजी भाषा थी या वे कहीं से इस भाषा को लाये थे। वास्तव में आभीर या उनके साथी जहाँ-जहाँ गये, उन्होंने तत्तत्स्थानीय प्राकृत को अपनाया और उसमें निज स्वभावानुकूल स्वर या उच्चारण-सम्बन्धी परिवर्तन कर दिये। आभीर स्वभाव के कारण इसी परिवर्तित एवं विकृत या विकसित भाषा को ही अपभ्रंश का नाम दिया गया ।85 यह एक विचारणीय बात है कि मार्कण्डेय ने अपनी पुस्तक के (पृ० 2) एक उद्धरण में आभीरों की भाषा को विभाषाओं के अन्तर्गत गिना है साथ ही साथ अपभ्रंश भाषा की पंक्ति में भी रखा है। फिर भी उसके अनुसार अपभ्रंश भाषाओं का तात्पर्य जनता की भाषाओं से है। मार्कण्डेय का विरोध करते हुए राम शर्मा तर्कवागीश का कहना है कि विभाषाओं को अपभ्रंश नाम से नहीं पुकारना चाहिये, विशेष कर वैसी परिस्थिति में जबकि वह नाटकादि में प्रयुक्त होती हो। वास्तव में अपभ्रंश तो वह भाषा है जो जनता द्वारा बोली जाती थी।
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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