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________________ हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि और साहित्यिक आदर्श मात्र है। आधुनिक अनुसंधान ने यह प्रमाणित कर दिया कि अपभ्रंश में विशाल वाङ्मय लिखा गया था। उसमें जन सामान्य की भावनाओं की पूर्ण अभिव्यक्ति हुई है । यह अवश्य है कि पुराने समीक्षक दण्डी आदि ने इसकी पूर्ण व्याख्या नहीं की है। अन्य प्राकृत वैयाकरणों ने भी साहित्यिक प्राकृत के प्रकार भेद (Varities) में ही अपभ्रंश का वर्णन किया, अवश्य कुछ ने इसके साथ न्याय किया है। वस्तुतः जब सभी प्राकृत भाषाओं का साहित्य सुसमृद्ध हो गया और परिष्कृत होकर यह जब जनता की भाषा नहीं रही तब नदी के प्रवाह की तरह भाषा के अवरूद्ध हो जाने के बाद एक नयी भाषा व्यवहार में आयी जो कि जनता की भाषा बन बैठी और उसी का नाम अपभ्रंश पड़ा। इसमें भी साहित्य रचे जाने लगे। भ्रमवश कुछ प्राकृत वैयाकरणों ने इसे भी प्राकृत ही मान लिया । 114 अभी हमने देखा कि तृतीय शताब्दी में जिस अपभ्रंश ने • विभाषा का रूप धारण किया था अर्थात् जो बोली के रूप में प्रचलित थी, उसके बोलने वाले आभीर, शबर और चाण्डाल आदि थे। उस समय वे लोग सिन्ध, मुल्तान और मुख्यतया उत्तर पंजाब • में निवास करते थे और यायावरों की तरह जीवन यापन करते थे । अनन्तर भारत के अन्य भूभागों में स्थायी रूप से बस गये। 5वीं शताब्दी तक अपभ्रंश साहित्य के रूप में अवश्यमेव अवतरित हो चुकी होगी क्योंकि ई० छठी शताब्दी के लगभग भामह और धारसेन ने अपभ्रंश को साहित्यिक महत्व दिया है। कोई भी भाषा तत्काल साहित्यिक महत्त्व नहीं प्राप्त करती। किसी भी भाषा में जब प्रचुर साहित्य रच दिया जाता है तब साहित्याचार्य लोग उसे महत्व देते हैं और उसे अपने काव्यशास्त्र में स्थान देते हैं। भारत में प्रायः यही परम्परा रही है । साहित्य की परम्परा बनने में काफी समय लगता है तब उसमें एकरूपता आती है । सुसमृद्ध हो जाने पर वह आलोच्य विषय होता है। इस तरह इस समय तक अपभ्रंश की साहित्यिक मर्यादा स्थापित हो चुकी थी । प्राकृत अबं संस्कृत
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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