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________________ इसलिये 'मैं' ही संसार हूँ और जब मैं ही अपने आत्म पुरुषार्थ की उच्चतम सफलता साध लूंगा तो समझिये कि 'मैं' ही सिद्ध हो जाऊँगा। इस प्रकार इस संसार के संसरण में सारी लीला फैली हुई है मेरी बद्ध आत्मा की तथा उन अनन्त बद्ध आत्माओं की जो जब तक मुक्त नहीं हो जाती, इस संसार में भटकती रहने को विवश हैं। संसार के संसरण का इस रूप में अनन्त-अनन्त आत्माओं के साथ 'मैं' भी एक कारण भूत हूं। क्योंकि 'मैं' अपने मूल स्वरूप की विकृति के साथ सांसारिक जड़ता से ग्रस्त हूँ एक मैल-पुते आईने की तरह निष्प्रभ होकर। मेरी स्व-चेतना की प्रभा कभी किन्हीं गुरु की कृपा से उभरी भी तो मूल पर चढ़ी विकृति की परतों को जानकर भी स्वच्छ कर लेने में मैं विफल रहा। यह अवश्य है कि इस विफलता ने मेरी आत्मा को कौंचा है और प्रेरणा दी है कि वह और अधिक पराक्रम दिखावे, अधिक पुरुषार्थ करे और अधिक तीव्र गति से मुक्ति की ओर आगे बढ़े।) इसी प्रेरणा ने मेरे 'मैं' को जमाया है यह जानने के लिए कि वास्तव में वह है कौन ? उसका मूल स्वरूप क्या है और उसका वर्तमान धूलि-धूसरित अपरूप क्यों बन गया है ? संसार के संसरण में यह 'मैं' कितना विवश बन गया है और क्यों ? किन्तु यदि यह 'मैं' सचेतन होकर जाग उठे तो वह किस प्रकार अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन एवं अनन्त शक्ति का वाहक बन सकता है ? तब उसका मूल स्वरूप कितना परमोज्ज्वल भव्य एवं जाज्वल्यमान हो उठेगा? मेरा 'मैं' ही अपना वास्तविक परिचय अपने को दूं और उसे पूर्ण गहनता से हृदयंगम करूं -यह परमावश्यक है। मैं अभी संसारी हूँ, कर्मों से लिप्त हूँ, वरन् मैं भी 'सिद्धों जैसा जीव' हूँ यह जानता हूँ तथा अपनी क्षमता को पहिचानता हूँ कि 'जीव सोई सिद्ध होय।' मूल में मेरा आत्म स्वरूप परम विशुद्ध है किन्तु मेरा अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य एवं अनन्त सुख कर्म रूपी काले बादलों से ढका हुआ है। अभी मेरी ये आत्म शक्तियाँ भले ढकी हुई हैं किन्तु यह सुनिश्चित है कि इनके अस्तित्व का लोप नहीं है। जब भी मेरा सत्पुरुषार्थ पूर्णतः प्रतिफलित हो जायगा। ये सम्पूर्ण शक्तियाँ अपनी पूरी प्रभा के साथ मेरे आत्म-स्वरूप में प्रकाशमान हो उठेगी वैसे वर्तमान में 'मैं' द्रव्य रूप हूँ क्योंकि गुण और पर्याय का धारक हूँ, कषाय रूप हूँ क्योंकि काषायिक वृत्तियों से ग्रस्त होता रहता हूँ। योग रूप हूँ क्योंकि मन, वचन तथा काया के योगों का व्यापार मेरे साथ निरन्तर चलता रहता है। 'मैं' उपयोग रूप हूँ, क्योंकि उपयोग में मेरा मूल लक्षण है। 'मैं' ज्ञान रूप हूँ, दर्शन रूप हूँ, चारित्र्य रूप हूँ एवं वीर्य रूप हूँ क्योंकि अपने ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र्य की उच्च कोटि की साधना को सफल बनाकर मैं अनन्त वीर्य का धारक हो सकता हूँ। मेरी आत्मा के ये आठों प्रकार उसके मूल एवं वर्तमान स्वरूप को स्पष्ट करते हैं। सभी संसारी आत्माओं की तरह द्रव्य, वीर्य, ज्ञान, दर्शन और उपयोग प्रत्येक समय में मेरे भीतर विद्यमान रहते हैं। कषाय तब विद्यमान रहती है, जब मेरी आत्मा सकषायी होती है और योग भी तब जब वह सयोगी होती है। आत्मा को सम्यक्-दृष्टि प्राप्त होने पर ज्ञान की सुलभता होती है तो सर्वविरति मुनियों को चारित्र्य की प्राप्ति । समुच्चय में कहा जा सकता है कि मेरी ही तरह सभी संसारी आत्माओं में ये आठ प्रकार देखे जा सकते हैं। संसार के संसरण एवं संचरण में अपनी इतनी सारी प्रछन्न शक्तियों के बावजूद मेरा 'मैं' अत्यन्त विचित्र है क्योंकि वह अपने आप से उतना ही विस्मृत भी है। 'मैं' जब स्व-तत्त्व को ५१
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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