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________________ ( स्वार्थ छूटता है तभी परोपकार हो सकता है और परोपकार की वृत्ति बनती है तो अपनी आन्तरिकता में एक अनूठे जागरण का आनन्द फूटता है । यही आनन्द जब बढ़ता जाता है तो मुझे परमानन्द से साक्षात्कार करने की ओर आगे बढ़ा सकता है ।। संसार के संसरण में 'मैं' यों देखें तो इस संसार को बनाने वाला 'मैं' हूँ और मेरे जैसी आत्माएँ हैं । किन्तु मेरे तथा सभी संसारी आत्माओं के कर्मों की विडम्बना यह है कि हम इस संसार से बंध गये हैं। ये आत्माएँ ही कर्मों से लिप्त होकर संसारी बनी हुई हैं जिनके विविध रूप दृष्टिगोचर होते हैं। समस्त संसारी आत्माओं को इन दो-दो विभागों में विभक्त कर सकते हैं—- त्रस और स्थावर, सूक्ष्म और बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त, संज्ञी और असंज्ञी, अल्प संसारी और अनन्त संसारी, सुलभ बोधि और दुर्लभ बोधि, कृष्ण पक्षी और शुक्लपक्षी, भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक एवं आहारक और अनाहारक। वैसे संसारी जीवों की चार श्रेणियाँ मानी गई है - ( १ ) प्राणी — विकलेन्द्रिय याने दो, तीन व चार इन्द्रियों वाले जीव (२) भूत - वनस्पति काया के जीव (३) जीव- पंचेन्द्रिय प्राणी तथा ( ४ ) सत्त्व – पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु के स्थावर जीवं । इस ज्ञान के कारण जीव को विज्ञ, तो सुख दुःख की संवेदना के कारण उसे वेद भी कहते हैं । ये संसारी आत्माएँ विभिन्न श्रेणियों के रूपों में ढलती, बनती, बिगड़ती, उठती, गिरती नित नूतन रचनाएँ करती रहती हैं और इस संसार को अपने संसरण से संसार बनाती रहती हैं। मैं आज संसारी जीव हूँ और सांसारिकता से जुड़ा हुआ हूँ। किन्तु जब अपनी साधना के बल पर मैं इस संसार से मुक्त हो जाऊँगा तब सिद्ध बन जाऊंगा । तो समस्त जीवों के मोटे तौर पर दो वर्ग मान लीजिये – संसारी और सिद्ध । सिद्ध होने का अर्थ है संसार से मुक्त हो जाना — संसार की संसरण प्रक्रिया से सर्वथा सदा के लिये विलग हो जाना। आत्मा मुक्त होती है संसार से, इस संसार से – जो चेतन - जड़ संयोग पर टिका हुआ है। अतः मुक्ति का मतलब है— चेतन का जड़ से सभी प्रकार के सम्बन्धों को सदा-सदा के लिये तोड़ देना। जब तक चेतन जड़ के साथ सम्बन्धित रहता है तब तक ही उसके लिये यह संसार है और उस दिशा में किये जाने वाले कर्मों के फलाफल के अनुसार उसे इस संसार में भ्रमण करना ही होता है। मैं चैतन्य देव हूँ। मेरी आत्मा अनन्त चेतना शक्ति की धारक है किन्तु जड़ तत्त्वों के साथ बंधी हुई है— शरीर में स्थित है। जड़-चेतन संगम स्वरूप यह शरीर अपने मन, वचन, काया के जिस प्रकार के यौगिक व्यापार में विचरता है तथा जिस प्रकार तज्जन्य विचार और आचार से सक्रिय होता है, उसी सक्रियता के परिणामस्वरूप शुभ अथवा अशुभ कर्मों से यह आत्मा बद्ध होती है। आत्मा का शरीर मृत्यु के उपरान्त बदल जाता है किन्तु बिना अपना फलभोग दिये निकाचित कर्म नहीं बदलते। वे कर्म आत्मा से जुड़े रहकर इसके शरीर की अवस्था में भी याने कि भावी जीवन में भी अपना शुभ अथवा अशुभ फल देते हैं । कर्म और फल का चक्र चलता रहता है जब तक कि कार्य-कारण रूप इन दोनों को पूर्णतः समाप्त नहीं कर दिया जाता । अतः कर्म के चक्र में मैं संसार बनाता हूँ । कर्म चक्र समाप्ति के साथ ही जड़ चेतन संयोग टूट जायगा तथा 'मैं' संसार से भी नाता तोड़ दूंगा। तब ‘मैं' शुद्ध स्वरूपी सिद्ध बन जाऊंगा। ५०
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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