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________________ भूलकर आत्म विस्मृत बन जाता है, तब उसका यही अर्थ लगाया जा सकता है कि पर तत्त्वों की गहरी उलझन मेरे आत्म स्वरूप पर छाई हुई है जो उसके गुण-विकास को अवरुद्ध कर देती है। मैं अपने चारों ओर दृश्य पदार्थों को देखता हूँ और उनमें अपने सुख को खोजता हूँ तो मुझे भ्रमपूर्ण यही विश्वास होता है कि उन पदार्थों में ही मेरा सर्व सुख समाया हुआ है। मैं तब अपने साथियों की व्यथा तथा सर्वहित को विसार कर अपने ही स्वार्थों के तंग घेरों में बंद हो जाता हूं। राग और द्वेष के उतार चढ़ाव मेरे भीतर की शुभता को ढक देते हैं। उन वृत्तियों और प्रवृत्तियों से घिर कर मैं राक्षस बन जाता हूं, समस्त सुखदायी पदार्थों को अपने और अपनों ही के लिये संचित करना चाहता हूँ। उन पदार्थों को दूसरों से छीनता हूँ और सबको अपने नियंत्रण में बंद करके दूसरों के कष्टदायक अभावों पर अट्टहास करता हूं। किन्तु मैं देखता हूँ कि मैं ही नहीं, अन्य कई मनुष्य भी मेरी ही तरह ऐसी राक्षसी वृत्ति में उलझ रहे हैं। और इस तरह कटु संघर्ष चलता रहता है —पारस्परिक सम्बन्धों में घोर तनाव फैलता रहता है। पदार्थों की प्राप्ति के लिये उभरती और बढ़ती हुई यह आपाधापी आपसी अन्याय और अत्याचार में जब बदल जाती है तब परिस्थितियाँ असह्य हो उठती हैं। दमन और शोषण के तले चारों ओर हाहाकार मच जाता है। इस तरह होता है एक ओर कुछ संसारी आत्माओं के क्रूर पक्ष का फैलाव तो दूसरी ओर अनेकानेक आत्माओं के शोषण, दमन तथा उत्पीड़न का कारुणिक दृश्य । किन्तु यही क्रूर व्यवहार, यही शोषण और दमन प्रबद्ध आत्माओं में नया विचार जगाता है। तब मनुष्य और मनुष्य के बीच में समानता, स्वतन्त्रता एवं भ्रातृत्व का नारा खड़ा होता है और मनुष्य जाति की वैचारिकता का एक नया आयाम सामने आता है, नया चिन्तन उभरता है और विकास की नई मंजिलें कायम की जाती हैं। वाद, प्रतिवाद तथा समन्वय के इस चक्र में चैतन्य तत्त्व का ही जागना, सोना, बगावत करना तथा बुराइयों को फेंक कर अच्छाइयों से अपनी झोली को भर लेना दिखाई देता है। 'मैं' ही इस वाद, प्रतिवाद तथा समन्वय के चक्र का प्रवर्तक होता हूँ किन्तु विडम्बना यही घटती है कि हर बार मैं विकास को अधूरा ही छोड़ देता हूँ, उसे उन्नति की सर्वोच्च ऊँचाई तक ले जाने में असमर्थ ही रह जाता हूँ। मैं सफलता और विफलता के हिंडोले में ही झूलता रहता हूँ –सफलता में सर्वोच्च शिखर तक पहुँच नहीं पाता इसी कारण संसार का संसरण निरन्तर चलता रहता है क्योंकि अनेकानेक संसारी आत्माओं के साथ 'मैं' उसमें संसरण करता रहता हूँ – उससे ऊपर उठकर संसार-मुक्त हो जाने में हर बार विफल हो जाता हूँ। मूल्यात्मक चेतना की अभिव्यक्ति 'मैं' जब सामाजिक अन्याय का प्रतिरोध करता हूं, विकृति के विरुद्ध विद्रोह जगाता हूँ अथवा प्रतिवाद को हटा कर पुनः वाद को प्रतिष्ठित करना चाहता हूँ तो मेरा यह संघर्ष मूल्यों के लिये लड़ा जाने वाला संघर्ष हो जाता है। मेरी चेतना में मानवीयता के जो मूल्य संस्थापित होते हैं, उनकी प्रतिष्ठा मेरा कर्तव्य हो जाता है क्योंकि उन मूल्यों की पुनः पुनः प्रतिष्ठा में ही मुझे सदाशयता का प्रसार दिखाई देता है—वह सदाशयता जो एक से दूसरे की बांह थमवाकर सबको आत्म विकास की महायात्रा में अग्रसर हो जाने की उत्प्रेरणा देती है। यही मेरी मूल्यात्मक चेतना की अभिव्यक्ति होती है। ५२
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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