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________________ मैं प्राणधारी हूँ इसलिये अपने दस प्राणों की सहायता से अनुभव कर सकता हूँ कि मैं प्राणधारी क्यों कहलाता हूँ ? सीधी सी बात है कि प्राणों को धारण करने से मैं प्राणधारी हूँ। तो प्रश्न उठता है कि ये प्राण कितने हैं और कौनसे हैं ? मुझ द्वारा धारण किये गये द्रव्य प्राणों की संख्या दस है। और भाव प्राण मेरी आन्तरिक शक्ति रूप ज्ञान, दर्शन, सुख और सत्ता रूप होते हैं। मैं सुनता हूँ, यह मेरा श्रोतेन्द्रिय प्राण है। इसी प्रकार मैं देखता हूँ, मैं सूंघता हूँ, मैं चखता हूँ और मैं स्पर्शानुभव करता हूं जो क्रमशः चक्षुरीन्द्रिय प्राण, घ्राणेन्द्रिय प्राण, रसनेन्द्रिय प्राण तथा स्पर्शेन्द्रिय प्राण कहलाते हैं । फिर मेरे मन, वचन एवं काया रूप तीन प्राण श्वासोश्वास एवं आयुष्य बल रूप दो प्राण और होते हैं। चैतन्य लक्षण से युक्त जीव तथा नाशवान स्वभावी अजीव के संसारी संयोग की ये प्राण ही कड़ियाँ हैं, जिनसे ऐसा चेतन, इस संसार में चित्र-विचित्र दृश्यों का चितेरा, विविध प्रकार के निर्माणों का निर्माता तथा ज्ञान-विज्ञान के गहन अनुसंधानों का अध्येता बनता है । यह संसार एक रंगमंच है और मैं तथा मेरे जैसे अन्य जीव इस रंगमंच के कलाकार हैं । कर्म से प्रेरित होकर विविधजन्मों में नाना प्रकार के शरीर धारण करता हूँ। मैं ही कभी पिता होता हूँ, तो कभी भाई, पुत्र और पौत्र भी हो जाता हूँ। कभी माता बनकर स्त्री और पुत्री भी हो जाता हूँ। यह संसार की विचित्रता है कि स्वामी दास बन जाता है और दास स्वामी । एक ही जन्म में राजा से रंक और रंक से राजा बन जाता हूँ। मैं संसार के सभी क्षेत्रों में रहा हूँ, सभी जातियों, कुलों व योनियों में मैंने जन्म लिया है और प्रत्येक जीव के साथ किसी न किसी रूप में एवं कभी न कभी नाता जोड़ा है किन्तु अनन्त काल व्यतीत हो जाने पर भी मुझे इस संसार में विश्राम नहीं मिला है। मैंने इस संसार में कर्मवश परिभ्रमण करते हुए लोकाकाश के एक-एक प्रदेश को अनन्ती बार व्याप्त किया किन्तु उसका अन्त नहीं आया। नरक गति में जाकर मैंने वहाँ होने वाली शीत, ऊष्ण एवं अन्य प्रकार की वेदनाएँ सहन कीं, तिर्यञ्चगति में भूख, प्यास, रोग, वध, बंधन, ताड़न, भारारोपण आदि दुःख प्रत्यक्ष देखे तथा विविध सुखों की सामग्री होते हुए भी देव जन्म में मैं शोक, भय, ईर्ष्या आदि दुःखों से दुखित रहा। मनुष्य गति में तो मैं वर्तमान में हूँ ही। गर्भ से लेकर वृद्धावस्था एवं मृत्यु तक कितने दुःख भोगने पड़ते हैं - यह मैं स्वयं अनुभव करता हूँ, समझता हूँ और देखता हूँ। चारों ओर दृष्टि फैलाता हूँ तो मुझे दिखाई देता है कि कोई रोग पीड़ित है, कोई धन, जन के अभाव में चिन्तित है, कोई स्त्री पुत्र के विरह से संतप्त है और कोई दारिद्र्य दुःख से दबा हुआ है। मैं चारों ओर दुःख ही दुःख देखता हूँ कि कहीं युद्ध चल रहा है तो कहीं साम्प्रदायिक या जातिवादी संघर्ष हो रहा । कहीं अनावृष्टि अकाल का हाहाकार है तो कहीं अतिवृष्टि से जल प्लावन की त्राहि-त्राहि मची हुई है। घर-घर कलह का अखाड़ा बना हुआ है, स्वार्थवश भाई अपने ही भाई का खून पी रहा है और माता-पिता व सन्तान के बीच में भी कटुता चल रही है । सारा संसार दुःख और द्वन्द्वों से भरा हुआ है, कहीं भी शान्ति के दर्शन नहीं होते । संसार के इन्हीं दुःख द्वन्दों के बीच जब मैं गहराई से चिन्तन करता हूं तो मुझे लगता है कि सामाजिक प्राणी होने के नाते अभावों, पीड़ाओं और विषमताओं से त्रस्त अपने साथियों एवं समस्त प्राणियों के प्रति भी मेरे कुछ कर्त्तव्य हैं। मैं अपना आत्म योग देकर भी दूसरों के अभावों, पीड़ाओं, विषमताओं को कम कर सकूं तो उस दिशा में मुझे निःस्वार्थ भाव से कार्य करना चाहिये । यह परोपकार की निष्ठा और क्रिया ही मुझे मेरे आत्म-विकास से जोड़ने वाली बनती है क्योंकि ४६
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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