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________________ जारी अपनी आत्मा के इस परिभ्रमण को समाप्त कर देने के लक्ष्य को सामने रख कर मैं इस जीवन में क्या-क्या करूं? अनेकानेक भव-भवान्तरों के प्रत्यक्ष अनुभव से मेरी चैतन्य शक्ति ने संसार के वास्तविक स्वरूप को जाना है तथा अनेक ज्ञानी आत्माओं के कथन से उसे पहिचाना भी है। किन्तु यह ज्ञान और पहिचान कभी सजग भी रही तो कभी विस्मृति के गर्त में डूबती भी रही। अपने विकास की पूर्णता पर न पहुँच पाने तक चेतना के साथ ऐसा ही परिवर्तन होता रहता है और यही वस्तुतः सांसारिकता है। द्रव्य संसार (लोक) का स्वरूप क्या ? छोटी-सी परिभाषा है द्रव्यों का समूह रूप है। फिर प्रश्न होगा कि द्रव्य क्या? जो गुण और पर्याय पर आधारित हो वह द्रव्य । गुणपर्यायवद् द्रव्यम्तत्त्वार्थ सूत्र ५/३७। गुण जो सदा एक सा रहे तथा पर्याय वह जो सदा बदलती रहे। यों द्रव्य छ: होते हैं कितु मुख्य हैं जीव और अजीव । अजीव में शेष पांच द्रव्यों का समावेश हो जाता है। जीव का दूसरा नाम आत्मा है और आत्मा के सिवाय सभी अजीव हैं। __ जैसे मैं हूँ। यह मैं जो हूँ, वह आत्मा है किन्तु मेरी आत्मा मुक्त नहीं है, शरीरधारी है। अतः यह शरीर जो है, वह जड़ पुद्गलों से निर्मित है। इस प्रकार मेरे वर्तमान जीवन का अस्तित्व है मेरी आत्मा एवं मेरे शरीर के संयोग से है। यह आत्मा एवं शरीर का संयोग ही संसार है । इसके सिवाय भी जितनी दृश्यावलियाँ हैं, वे सब जड़ रूप हैं। यों कह सकते हैं कि इन चर्मचक्षुओं से जो कुछ भी दिखाई देता है, वे सब जड़ पदार्थ हैं। मुख्यतः आत्माओं एवं शरीरों का संयोग ही संसार की सारी हलचलों का मूल है। इन सारी हलचलों से संसरित होता हुआ ही यह संसार है। अतः मेरी आत्मा और मेरी देह का संयोग ही मेरा संसार है। दोनों के संयुक्त होने से सम्पूर्ण क्रियाएं संचालित होती हैं, इन्हीं क्रियाओं की शुभता एवं अशुभता के आधार पर पुण्य एवं पाप कर्मों का बंधन होता है तथा इसी कर्मबंधन के फलस्वरूप जन्म-मरण का क्रम चलता है। मैं इसी सांसारिकता के चक्र में भव-भवान्तर में भ्रमण कर रहा हूँ तथा इसी प्रकार समस्त संसारी जीव भी संसार-परिभ्रमण कर रहे हैं। जब समग्र कर्म-बंधनों को समाप्त कर लेने पर मेरी आत्मा सूक्ष्म स्थूल देह के बंधन से मुक्त हो जायगी तब वह सिद्ध हो जायेगी और सदा-सदा के लिये सिद्ध ही रहेगी। वह पुनः कभी भी संसार में अवतरित नहीं होगी। (आत्मा का अपने मुक्त एवं शुद्ध स्वरूप में पहुँच जाना ही उसका मोक्ष होता है। आत्मा एवं शरीर संयुक्त हैं तब तक ही संसार है।) संसार में रहते हुए मेरी आत्मा एवं मेरी देह के संयोग को गति, स्थिति, अवकाश एवं व्यतीति के सम्बल की आवश्यकता होती है। जीव एवं अजीव पुद्गल द्रव्यों के सिवाय शेष चार द्रव्य-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय एवं काल ये चारों उपरोक्त सम्बल उपलब्ध कराते हैं। मैं गति करता हूँ तो उसमें धर्मास्तिकाय का सम्बल मिलता है, अधर्मास्ति काय के योग से ठहरने की स्थिति बनती है। इस अवकाश में समस्त क्रियाएँ आकाशास्तिकाय की सहायता से चलती हैं एवं काल द्रव्य व्यतीत करने का कार्य करता है। यों सभी द्रव्यों में जीव प्रमुख है जो जड़ कर्मों से संलग्न बनकर संसार में विविध प्रकार की रचनाओं का निर्माता बनता है। कर्मों की संलग्रता से जीव विभिन्न प्रकार के शरीरों को धारण करने वाला बनाता है और शरीर दस प्रकार के प्राणों के बल पर टिके रहते हैं। इसलिये जीव को प्राणधारी या प्राणी भी कहते हैं। ४८
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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