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________________ (३) प्रवर्तक –आचार्य के आदेश से वैयावृत्य आदि धर्म कार्यों में साधुओं को ठीक तरह से प्रवृत्ति कराने वाले, (४) स्थविर-संवर से गिरते हुए या दुःखी होते हुए साधुओं को स्थिर करने वाले तथा दीक्षा, वय, शास्त्रज्ञान में वृद्ध, (५) गणी—कुछ साधुओं के समूह एक गच्छ के स्वामी-शास्ता (६) गणधर-आचार्य की आज्ञा में रहते हुए गुरु के कथनानुसार कुछ साधुओं को लेकर अलग विचरने वाले गण के धारक, तथा (७) गणावच्छेदक -गण की सारी व्यवस्था तथा कार्यों का ध्यान रखने वाले। यों तीन से लेकर सात तक की पदवियां आचार्य के अधीन होती हैं अतः इनका उस पद में समावेश मान लिया जाता है। उपाध्याय का पद यद्यपि आचार्य के अनुशासन में ही होता है तथापि अपने कार्य की गरिमा के कारण पांच पदों में एक वन्दनीय पद माना गया है। ____ मैं ज्ञानसाधक उपाध्याय हूं। मैं शास्त्र और धर्म साहित्य स्वयं पढ़ता हूं तथा जिज्ञासा सम्पन्न साधुओं को पढ़ाता हूं। ज्ञानार्जन तथा अध्ययन-अध्यापन मेरा पुनीत कर्तव्य है। मैं शिष्यों को सूत्रों का अर्थ सिखाता हूं तथा सर्वज्ञभाषित एवं परम्परा से गणधर आदि द्वारा उपदिष्ट ग्यारह अंगों तथा बारह उपांगों का अध्ययन कराता है। मेरे उपाध्याय पद के साथ पच्चीस गुणों की सम्पन्नता होनी आवश्यक मानी गई है। धारण किये जाने वाले ये पच्चीस गुण इस प्रकार हैं - ग्यारह अङ्ग (१) आचाराङ्गसूत्र (२) सूत्रकृताङ्ग सूत्र (३) स्थानांग सूत्र (४) समवायाङ्ग सूत्र (५) भगवती सूत्र (६) ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र (७) उपासकदशाङ्ग सूत्र (८) अन्त कृछशाङ्ग सूत्र (६) अनुतरोपपातिक सूत्र (१०) प्रश्न व्याकरण सूत्र (११) विपाक सूत्र बारह उपाङ्ग (१) ओपपाटिक सूत्र (२) राजप्रश्नीय सूत्र (३) जीवाभिगम सूत्र (४) प्रज्ञापना सूत्र (५) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (६) चन्द्र प्रज्ञप्ति सूत्र (७) सूर्य प्रज्ञप्ति सूत्र (८) बिरमावक्तिका सूत्र (६) कल्पवतंसक सूत्र (१०) पुफिया सूत्र (११) पुष्प चूलिका सूत्र (१२) वह्रिदशा सूत्र ग्यारह अंगों तथा बारह उपांगों के ज्ञान रूप गुणों के सिवाय चौबीसवां गुण है चरणसप्तति अर्थात् सदा काल जिन सत्तर बोलों का आचरण किया जाता है चरण सत्तर कहलाते हैं जो इस प्रकार हैं—पांच महाव्रत, दस श्रमण धर्म, सत्रह संयम, दस वैयावृत्य, नव ब्रह्मचर्य गुप्ति, रत्नत्रय, बारह तप तथा चार कषाय निग्रह । पच्चीसवां गुण कहा गया है करणसप्तति अर्थात् प्रयोजन उपस्थित होने पर जिन सत्तर बोलों का आचरण किया जाता है, वे करण सत्तर कहलाती हैं जो इस प्रकार हैं-चार पिंड विशुद्धि, पांच समिति, बारह भावना, बारह प्रतिभा, पांच इन्द्रिय निरोध, पच्चीस प्रतिलेखना, तीन गुप्ति तथा चार अभिग्रह। ४०६
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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