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________________ एक अखंड धारा को एक दत्ति कहते हैं। जहां एक व्यक्ति के लिये भोजन बना हो, वहीं से भिक्षा लेनी चाहिये । याचनी, पृच्छनी, अनुज्ञापनी, पुठ्ठ वागरणी, आदि चार प्रकार की भाषा बोलनी चाहिये, तीन प्रकार के स्थान पर ठहरना चाहिये तथा विहार कष्ट सहने चाहिये। एक माह की इसकी अवधि है। तदनन्तर दूसरी से लेकर सातवीं प्रतिमा तक पहली प्रतिमा के सभी नियमों का पालन करते हुए प्रतिमा के क्रमानुसार दो से लेकर सात दत्ति अन्न व पानी ग्रहण किया जाता है। फिर आठवीं प्रतिमा में एकान्तर चौविहार उपवास किया जाता है तथा ध्यान में कायक्लेश सहित समय व्यतीत किया जाता है। नवमीं प्रतिमा में चौविहार बेले बेले पारणा किया जाता है एवं दंडासन, लकुड़ासन और उत्कुटासन से ध्यान किया जाता है। दसवीं प्रतिमा में चौविहार तेले तेले पारणा किया जाता है तथा गोदोहनासन, वीरासन व आम्रकुब्जासन से ध्यान किया जाता है। ग्यारहवीं प्रतिमा में, जो अहोरात्रिकी होती है, चौविहार बेला किया जाता है और दोनों पैरों को कुछ संकुचित कर हाथों को घुटनों तक लम्बा करके कायोत्सर्ग किया जाता है। एक रात्रिकी बारहवीं प्रतिमा में चौविहार तेले के साथ अनिमेष नैत्रों से निश्चलतापूर्वक कायोत्सर्ग किया जाता है। मैं समता रूप सामायिक को धारण करने वाला श्रमण हूं, अतः (१) सर्प के समान अपना घर नहीं बनाता और एक ही जगह नहीं ठहरता, (२) पर्वत के समान परीषह—उपसर्गो से कम्पित नहीं होता और अनुकूलता–प्रतिकूलता को समभाव से सहते हुए संयम में दृढ़ रहता हूं (३) अग्नि के समान ज्ञान और सूत्राभ्यास से तृप्त नहीं होता तथा तप रूपी तेज से प्रदीप्त होता हूं (४) सागर के समान मर्यादाओं का उल्लंधन नहीं करता और छोटी-छोटी बातों से कुपित नहीं होते हुए ज्ञान गंभीर बना रहता हूं (५) आकाश के समान किसी के भी आलंबन से रहित निरावलम्बी होकर ग्राम नगर आदि में यथेच्छ विहार करता हूं (६) वृक्ष के समान समभाव पूर्वक कष्टों को सहता हूं तथा धर्मोपदेश के द्वारा प्राणियों को मुक्ति का मार्ग बतलाता हूं-अपमान, सम्मान में समभाव रखता हूं (७) भ्रमर के समान एक-एक घर से थोड़ा-थोड़ा आहार ग्रहण करता हूं ताकि किसी को कष्ट न हो (८) हरिण के समान पाप कार्यों से सदा डरता हूं और पाप स्थानों पर एक क्षण के लिये भी नहीं ठहरता हूं (६) पृथ्वी के समान सभी कष्टों को समभाव से सहता हूं तथा अपने अपकारी-उपकारी, निन्दक-प्रशंसक सबको समान रूप से उपदेश देता हूं, (१०) कमल के समान शरीर की उत्पत्ति काम भोगों से होने पर भी उसे काम भोगों में लिप्त नहीं होने देता हूं और उनसे उसे दूर रखता हूं (११) सूर्य के समान नवतत्त्वों का स्वयं ज्ञाता बनकर धर्मोपदेश द्वारा भव्य जीवों के अज्ञानान्धकार को दूर करता हूं तथा (१२) वायु के समान अपनी इच्छानुसार सभी दिशाओं में अप्रतिबद्ध विहार करता हूं और जन-जन को कल्याण मार्ग बताता हूं। मैं रत्नत्रयाराधक मुनि हूं—सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चारित्र की सतत आराधना करता हूं, क्योंकि यही मोक्ष का मार्ग है तथा मोक्ष प्राप्ति ही मेरा साध्य है। मुनि पद ही मूल पद है जो उपाध्याय, आचार्य तथा अरिहंत के भी होता है और सिद्ध भी मुनि पद से ही हुआ जाता है। ___ मैं ज्ञान साधक उपाध्याय हूं मैं रत्नत्रयाराधक मुनि होता हूं, तभी ज्ञान साधक उपाध्याय हो सकता हूं, क्योंकि गच्छ, गण या संघ की सुव्यवस्था के लिये योग्य साधुओं को विशेष अधिकार युक्त पदवी दी जाती है। सामान्य रूप से इस प्रकार की सात पदवियां निश्चित की गई हैं -(१) आचार्य (२) उपाध्याय ४०५
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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