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________________ ज्ञान साधना की दृष्टि से ये पच्चीस गुण रूपी ज्ञान का महासागर है, जिसमें उपाध्याय के पद पर रहते हुए निरन्तर डुबकियाँ लगाता हूं और ज्ञानार्जन के अमूल्य मोती एकत्रित करता हूं तथा साधर्मी साधु की भव्य आत्माओं को उनसे अलंकृत बनाता हूं। मेरा यह क्षेत्र ऐसा है जिसमें विचरण करते हुए मुझे असीम आत्मानन्द का अनुभव होता है और यह पूर्ण स्वाभाविक है। कारण, आत्मा . का स्वभाव ज्ञानमय है और उस ज्ञान की गहराई में उतरने का जब मेरी आत्मा को ऐसा सुअवसर प्राप्त है तो असीम आनन्द की अनुभूति पूर्णतः स्वाभाविक है। मेरा सम्पूर्ण संसार सम्यक् ज्ञान का संसार है जिसमें मैं अहर्निश रमण करता हूं और ज्ञान के मर्म की शोध करता हूं। यह शोध ही वस्तुतः सत्य की शोध होती है। संघ व्यवस्था की दृष्टि से भी मेरे पद के आचार्य पद के साथ कई प्रकार के कर्तव्य (जिनका विवरण आचार्य पद के विश्लेषण के साथ दिया गया है) निर्धारित हैं, जिनका सम्यक् निर्वाह भी मैं करने में यनरत रहता हूं। मेरे उपाध्याय पद का विशिष्ट महत्त्व है, तभी तो उसे महामंत्र में स्थान दिया गया है। पांच पदों के इस सर्वश्रेष्ठ महामंत्र में मेरा पद चौथे स्थान पर है—आचार्य के पद के पश्चात् ही उसका क्रम है। लोक में विद्यमान सर्व साधुओं को नमस्कार करने के बाद उपाध्याय को नमस्कार किया गया है। यह नमस्कार महामंत्र गुणाधारित है, व्यक्तिपरक नहीं। उस दृष्टि से उपाध्याय को नमस्कार करते हुए किसी व्यक्ति विशेष को नमस्कार नहीं किया जाता, किन्तु उन सभी महापुरुषों को समुच्चय रूप से नमस्कार किया जाता है, जो उपाध्याय पद के धारक हैं तथा इस पद के पच्चीस गुणों से विभूषित हैं। अतः मेरी स्पष्ट मान्यता है कि मुझे उपाध्याय पद से किया जाने वाला नमस्कार मुझे नहीं, अपितु मेरे द्वारा अर्जित गुणों को है। इस दृष्टि से मेरी विनम्रता और अधिक बढ़ जानी चाहिये वरना यदि मैं ही अपने गुणों में हीनता प्राप्त करता हूं तो मैं अपने पद का अधिकारी ही नहीं रहता हूं। मैं ज्ञानसाधक उपाध्याय हूँ और ज्ञानसाधना में तल्लीन बना रहना चाहता हूँ। मैं अनुशासक आचार्य हूँ मैं अनुशासक आचार्य हूँ-संघ का अनुशासन मेरा दायित्व है। मैं पंच प्रकार के आचार का स्वयं कठिनता से निष्ठापूर्वक पालन करता हूं तथा संघ के सभी साधुओं से उस आचार का उसी रीति से पालन करवाने की चेष्टा में रत रहता हूं। चरणकरणानुयोग, धर्मकथानुयोग, द्रव्यानुयोग तथा गणितानुयोग रूप चारों अनुयोगों के ज्ञान को मैं धारण करता हूं एवं चतुर्विध संघ (साधु, साध्वी, श्रावक व श्राविका) के संचालन में अपना सामर्थ्य नियोजित रखता हूं। मैं स्वयं आचार्य पद की अभिलाषा नहीं करता हूं किन्तु मेरे आचार्य गुरु जब मेरे जीवन में वैसी योग्यता का सद्भाव देखते हैं और मुझे इस पद के लिये मनोनीत करते हैं तब मेरा परम कर्तव्य हो जाता है कि मैं उनके द्वारा तथा चतुर्विध संघ की पूर्ण सहमति के आधार पर अपने मनोनयन के बाद संघ की संचालन व्यवस्था में अपने दायित्व का पूर्ण नम्रता एवं निष्ठा से निर्वाह करूं। यों आचार्य तीन प्रकार के माने गये हैं शिल्पाचार्य, कलाचार्य तथा धर्माचार्य, किन्तु मैं धर्माचार्य के रूप में दायित्वधारी होता हूं। धर्माचार्य स्वयं श्रुत धर्म का पालन करने वाला, दूसरों को उसका उपदेश देने वाला और संघ का नायक होता है और उसकी सेवा पारलौकिक हित-कर्म निर्जरा आदि के लिये की जाती है। वीतराग देवों ने आचार्य पद में तीन प्रकार की ऋद्धि का निर्दे ४०७
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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