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________________ मैं आत्मा हूं और मेरा मूल स्वरूप शुद्ध, बुद्ध, सिद्ध निरंजन है। मैं अपने वर्तमान अशुद्ध, अबुद्ध, असिद्ध और शरीरी स्वरूप को आत्मा के मूल स्वरूप में कैसे परिवर्तित करूं -उस पुरुषार्थ को भी जानता हूं और इसी सामर्थ्य एवं पुरुषार्थ को सभी भव्य आत्माओं के समक्ष प्रकट करना चाहता हूं। इस पुरुषार्थ के तीन चरण हो सकते हैं—एक, अपने आत्म स्वरूप पर प्रतीति हो, उसकी अनुभूति ली जाय तथा उसके ज्ञाता, दृष्टा, कर्ता, एवं भोक्ता शक्तियों को समझा जाय। दो, सांसारिकता में रमती हुई अपनी वर्तमान आत्मिक अवस्था के कारण जाने जाय, उन्हें दूर करने के उपाय खोजे जाय और उन उपायों की क्रियान्विति पर अपना कठोर पुरुषार्थ नियोजित किया जाय। तीन, सम्यक्त्व को आत्मसात् किया जाय, सर्वविरति त्याग के अन्तर्गत संयम एवं तप की उच्चस्थ साधना की जाय और वीतरागी बनकर शुद्ध, बुद्ध, सिद्ध एवं निरंजन अवस्था में अपनी आत्मा को सदा काल के लिये अवस्थित बना ली जाय। अतः आवश्यक है कि मैं अपने भीतर झांकू , भीतर उतरूं और भीतर की गहराई की थाह लूं-मुझे अपना विराट् आत्म-स्वरूप वहीं पर दिखलाई देगा और वहीं की गूढ़ता से मैं अपने मूल गुणों की पहिचान कर सकूँगा। मैं क्या हूं और मुझे क्या होना चाहिये एवं मैं क्या कर रहा हूं तथा मुझे क्या करना चाहिये—इस सबका वास्तविक बोध भी मुझे वहीं से हो सकेगा। मैं आत्म स्वरूपी हूं . इसलिये मेरा पहला चरण है कि मैं आत्म स्वरूपी हूं। आत्मा है, वह मैं हूं और मैं वह नहीं हूं जो मेरा शरीर है। आत्मा और शरीर के पृथकत्व को समझकर ही मैं अपने यथार्थ स्वरूप को पहिचानता हूं। शरीर अलग है और आत्मा अलग है और इस कारण जब एक जीवन समाप्त होता है तो उस जीवन में प्राप्त शरीर समाप्त होता है, आत्मा समाप्त नहीं होती। आत्मा तो अजर अमर होती है इस संसार में भी और सिद्ध-स्थली में अवस्थित हो जाने के बाद में भी। सिद्धावस्था में वह कर्म मुक्त हो शुद्ध, बुद्ध, सिद्ध और निरंजन बन जाती है तब वह शाश्वत रूप से एक स्वरूपी बन जाती है। तो मैं आत्मा हूं इसीलिये अनश्वर हूं—अजर अमर हूं। मेरी कभी मृत्यु नहीं होती और जब मेरी मृत्यु नहीं होती है तो शरीर की मृत्यु का अवांछित भय मैं क्यों रखू? इसी कारण मैं अभय भी हूं। मैं आत्मा हूं, इसीलिये निरन्तर ज्ञान आदि पर्यायों को प्राप्त होता हूं और मेरा लक्षण उपयोग या चैतन्य रूप है। मेरा ही नहीं, संसार के समस्त जीवों का भी यही उपयोग या चैतन्य रूप लक्षण है। इस दृष्टि से मेरी आत्मा और सभी जीवों की आत्माएं एक हैं। मैं आत्मावादी भी हूं क्योंकि मैं नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देवगति आदि भाव दिशाओं तथा पूर्व पश्चिम आदि द्रव्य दिशाओं में आने जाने वाले अक्षणिक, अमूर्त आदि स्वरूप वाली आत्मा को मानता हूं और आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करता हूं। मैं आत्मा के इस स्वरूप को नहीं मानता कि वह सर्वव्यापी, एकान्त, नित्य या एकान्त क्षणिक है क्योंकि वैसा मानने पर आत्मा का पुनर्जन्म संभव नहीं होता है। आत्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध में जो शंकाशील होते हैं अथवा उसके अस्तित्व को नहीं मानते, उनका पक्ष है कि आत्मा नहीं है, क्योंकि वह प्रत्यक्ष का विषय नहीं है जैसे कि कोई कहे - आकाश में फूल हैं। जो वस्तु विद्यमान होती है, वही प्रत्यक्ष से जानी जा सकती है, जैसे घड़ा। ३६०
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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