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________________ सूत्र नवम मैं शुद्ध, बुद्ध, सिद्ध निरंजन हूं। मैं आत्मस्वरूप हूं—ज्ञान सम्पन्न हूं। इसी कारण मैं जानता हूं कि वास्तव में मैं क्या हूं और आज मैं किस स्वरूप में चल रहा हूं ? मैं यह भी जानता हूं कि मैं जिस संसार में अभी चल रहा हूं, उसका सही स्वरूप क्या है तथा संसार के स्वरूप ने मेरे आत्म-स्वरूप को किस रूप में प्रभावित कर रखा है ? मैं यह सब जानता हूं, इसीलिये मानता हूं और कहता हूं कि मैं शुद्ध हूं –सर्व प्रकारेण शुद्ध। मेरी मूल शुद्धता या निर्मलता में किसी भी प्रकार के मल का कोई अंश नहीं है। मैं पूर्णतया निर्मल और शुद्ध हूं। मैं शुद्ध हूं इसीलिये बुद्ध हूं—प्रबुद्ध हूं। मेरे बोध की कोई सीमा नहीं है मेरा बोध असीम है- सम्पूर्ण लोक को जानता है, लोक की प्रत्येक आत्मा और वहां रहे हुए प्रत्येक पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को जानता है। प्रत्येक को द्रव्य रूप में भी जानता है और उसकी विविध पर्यायों को भी पहिचानता है। __ मैं बुद्ध हूं और तदनुसार सिद्ध हूं—कोई सिद्धि ऐसी नहीं जो मेरे से अछूती रह सके। मैं अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र और अनन्त वीर्य का धारक हूं। मेरी बुद्धता अपार है तो मेरी सिद्धि मेरे परम स्वरूप की द्योतक है। सिद्ध होकर मैं आनन्द निमग्न हो जाता हूं। मैं शुद्ध, बुद्ध, सिद्ध हूं, अतः तदनुसार निरंजन हूं। मेरी शुद्धता, बुद्धता और सिद्धि मुझे शरीर के बंधन से मुक्त बनाकर निरंजन-निराकार बना देती है और वस्तुतः मेरी आत्मा का वही परम और चरम स्वरूप है। __ यद्यपि यह सत्य है कि आज मैं शुद्ध नहीं हूं, बुद्ध नहीं हूं, सिद्ध नहीं हूं और निरंजन भी नहीं हूं तथापि यह भी उतना ही सत्य है कि शुद्ध, बुद्ध, सिद्ध और निरंजन स्वरूपी बन जाने का अमित सामर्थ्य मेरी ही आत्मा में समाया हुआ है। मैं अपने अपूर्व पुरुषार्थ से शुद्ध, बुद्ध, सिद्ध और निरंजन बन सकता हूं। यह मेरी प्रयास साध्य अवस्था है मेरा साध्य है। ___ मैं जानता हूं कि मैं आत्म स्वरूपी हूं। मैं आत्मा हूं, शरीर नहीं। शरीर तो मात्र मेरा वस्त्र है जिसे मैं अपने कर्मानुसार बदलता रहता हूं। मैं स्वयं शरीर नहीं हूं। किन्तु इस संसार में विडम्बनाभरी स्थिति यही है कि अधिकांश प्राणी अपने को शरीर स्वरूप ही मानकर चलते हैं, अपने आत्म-स्वरूप की अनुभूति नहीं लेते हैं। वे 'मैं' और 'मेरे शरीर' के भेद को आंकते नहीं हैं। ऐसी अनुभूति और अंकन के अभाव में वे न तो सत्य साध्य का निर्धारण कर पाते हैं और न ही सत्य साधनों का चयन । वे संसार और वर्तमान जीवन को ही सब कुछ मानकर मोहग्रस्तता के भयानक दुःखों को भोगते हैं। किन्तु मैं अपने मूल स्वरूप को जानता और पहिचानता हूं और इसीलिये मैं यथार्थ स्वरूप का पूर्णतः प्रतिपादन करना चाहता हूं। ३८६
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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