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________________ आत्मा चूंकि प्रत्यक्ष से नहीं जानी जा सकती है, इसीलिये वह नहीं है। परमाणु विद्यमान होने पर भी प्रत्यक्ष से नहीं जाने जा सकते हैं यह तर्क आत्मा के लिये उचित नहीं है, क्योंकि घड़े आदि के कार्यरूप में परिणत होने पर परमाणु प्रत्यक्ष से जाने जा सकते हैं। आत्मा अनुमान से भी नहीं जानी जा सकती है। प्रत्यक्ष से दो वस्तुओं का अविनाभाव (एक दूसरे के बिना नहीं रहना) निश्चित हो जाने के बाद किसी दूसरी जगह एक को देखकर दूसरी वस्तु का ज्ञान अनुमान से होता है। आत्मा का प्रत्यक्ष न होने के कारण उसका अविनाभाव किसी वस्तु के साथ निश्चित नहीं किया जा सकता अतः आत्मा अनुमान से भी नहीं जानी जा सकती है। तीसरे, आत्मा की सिद्धि आगम से भी नहीं होती है, क्योंकि उसी महापुरुष के वाक्य को आगम रूप से प्रमाण माना जा सकता है, जिसने आत्मा को प्रत्यक्ष देखी है। आत्मा प्रत्यक्ष का विषय नहीं है इसलिये उसके अस्तित्व को बताने वाला आगम भी प्रमाण नहीं माना जा सकता। इसके अलावा अलग-अलग मतों के आगम भिन्न-भिन्न प्ररूपणा करते हैं कुछ आत्मा के अस्तित्व को बताते हैं और कुछ अभाव को। ऐसी दशा में यह नहीं कहा जा सकता कि अमुक आगम ही प्रमाण है। उपमान या अर्थोपत्ति प्रमाण से भी आत्मा का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता, क्योंकि इन दोनों की प्रवृत्ति भी प्रत्यक्ष द्वारा जाने हुए पदार्थ में ही हो सकती है। वीतराग देवों की अमोघ वाणी के प्रकाश में मैं जब इन तर्कों की विवेचना करता हूं तो स्पष्ट हो जाता है कि ये सारे तर्क सारहीन हैं और इस कारण कुतर्क हैं। मैं समझता हूं कि आत्मा मुझे प्रत्यक्ष है क्योंकि यदि मैं आत्मा के अस्तित्व में संशय भी करता हूं तो वह संशय स्वयं ज्ञान होने के कारण आत्मा का ही विषय है क्योंकि उपयोग ही आत्मा का स्वरूप है। इसी प्रकार अपने शरीर में होने वाले सुख-दुःख आदि का ज्ञान स्वयंवेदी (अपने आपको जानने वाला) होने के कारण आत्मा को ही प्रत्यक्ष करता है। प्रत्यक्ष से सिद्ध वस्तु के लिये दूसरे प्रमाण की आवश्यकता नहीं रहती है। मैंने किया, मैं करता हूं, मैं करूंगा या मैंने कहा, मैं कहता हूं, मैं कहूंगा अथवा मैंने जाना, मैं जानता हूं, मैं जानूंगा इत्यादि तीनों कालों को विषय करने वाले ज्ञानों में भी 'मैं' शब्द से आत्मा का ही बोध होता है। इस प्रत्यक्ष ज्ञान से भी आत्मा की सिद्धि होती है। यदि 'मैं' शब्द से शरीर को लिया जाय तो मत शरीर में भी यही प्रतीति होनी चाहिये, जो नहीं होती है। आत्मा का निश्चयात्मक ज्ञान हुए बिना 'मैं हूँ' यह निश्चयात्मक ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि इसमें भी 'मैं' शब्द का अर्थ आत्मा ही है। मैं स्पष्ट समझ रहा हूं कि आत्मा के नहीं होने पर 'आत्मा है या नहीं' इस प्रकार का संशय भी पैदा नहीं हो सकता है, क्योंकि संशय ज्ञान रूप है और ज्ञान आत्मा का गुण है। गुणी के बिना गुण नहीं रह सकता। ज्ञान को शरीर का गुण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ज्ञान अमूर्त और बोध रूप है तथा शरीर मूर्त और जड़ है। दो विरोधी पदार्थ गुण और गुणी नहीं बन सकते । जैसे बिना रूप वाले आकाश का गुण रूप नहीं हो सकता और इसी प्रकार मूर्त और जड़ शरीर का गुण अमूर्त और बोध रूप ज्ञान नहीं हो सकता। सभी वस्तुओं के स्वरूप का निश्चय आत्मा का निश्चय होने पर ही हो सकता है। जिसे आत्मा के अस्तित्व में ही सन्देह हो, वह कर्म बंध, मोक्ष तथा घट, पट आदि के विषय में भी संशय रहित नहीं हो सकता है। मैं जान रहा हूं कि आत्मा का अभाव सिद्ध करने वाले अनुमान में भी बहुत से दोष हैं। प्रत्यक्ष प्रतीत होने वाली आत्मा का अभाव सिद्ध करने से साध्य प्रत्यक्ष बाधित है तो वह अनुमान विरुद्ध भी है। संशय वाला हूं। इस में 'मैं' शब्द से वाच्य आत्मा का अस्तित्व मानते हुए भी उसका ३६१
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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