SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 338
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भावाभिभूत होकर राजा महात्मा के चरणों में झुक आया, पश्चाताप भरे स्वर में कहने लगा—महात्मन्, आपने मेरा गर्व खर्व कर दिया है, मेरा उन्माद उतर गया है और परम प्रतापी व सर्व शक्तिमान् होने का मेरा भ्रम भी मिट गया है। महात्मा पुनः अपने रूप में आ गये और स्नेह भरी मुस्कान के साथ बोले— राजन्, तुम्हें शिक्षा देने के लिए ही मैंने यह सब किया, तुम बुरा न मानना । सदा यह ध्यान में रखना कि इस संसार की सभी बाहरी शक्तियाँ किसी को प्राप्त हो जाय तब भी वह सर्व शक्तिमान् नहीं बनता । यथार्थ में सर्वशक्तिमान् बनना आत्म-शक्तियों का ही रहस्य होता है । जिसका बाहरी वैभव नहीं, आन्तरिक वैभव समुन्नत हो जाता है और जो दया का सागर बन जाता है, वही अपनी पूर्ण विकसित आत्मा के साथ परम प्रतापी और सर्वशक्तिमान् होता है । यह परम अवस्था बाहर की विजय से नहीं, भीतर की विजय से प्राप्त होती है । आत्म शक्ति को उद्बोधन मुझे जब अपनी आत्मशक्ति के ही इस विराट् रूप का परिचय होता है तो मैं एक अनूठे ही आन्तरिक आनन्द से भर उठता हूँ। मैं वास्तव में इतना शक्ति सम्पन्न हूँ और परमात्मपद का वरण कर सकता हूँ, तब इतना निराश और हताश क्यों हूँ। आशा तभी टूटती है, जब किसी कार्य को सम्पन्न करने की क्षमता टूट जाती है। सक्षम होकर भी मैं निराश हो गया – यह मेरा निरा अज्ञान ही है। मैं अपने ही अज्ञान के इस पर्दे को फाड़ देना चाहता हूँ और अपनी सोई हुई आत्मा को झकझोर कर जगा देना चाहता हूँ। यह मैं कौन ? मैं ही मेरी आत्मा हूँ — दोनों में द्वेत नहीं है । आत्मा ही आत्मा को जगाती है और आत्मा ही आत्मा को उद्बोधन करती है । मैं जागता हूँ, उसका अर्थ ही यह होता है कि मेरी आत्मा जागती है और उस जागृति के फलस्वरूप मैं ही अपनी आत्मशक्ति को उद्बोधन करता हूँ । इस दृश्य की भी कल्पना की जा सकती है। समझिये कि एक छात्र गहरी नींद में सोया हुआ है। उसने प्रातः चार बजे उठने के लिए घड़ी में अलार्म दे रखा है। चार बजते ही घड़ी का अलार्म जोरों से बज उठता है— काफी देर तक बजता रहता है। छात्र की नींद खुल तो जाती है, मगर आलस्यवश उठ नहीं पाता। उस समय मन ही मन अपने को फटकारता भी है कि तुरन्त उठकर वह पढ़ने क्यों नहीं बैठता तो दूसरी तरफ मीठी मीठी नींद से छुटकारा ले लेने की मर्जी नहीं होती। काफी देर तक भीतर ही भीतर कशमकश चलती रहती है । उठकर पढ़ने बैठने का मन मजबूत होता है तो आलस्य को झटक कर वह बिस्तर से उठ खड़ा होता है और मन का आलस्य मजबूत साबित होता है तो वह फिर से गहरी नींद सो जाता है । उस छात्र के मन की ऐसी कशमकश को हम रोज-ब-रोज महसूस करते हैं । यही स्वयं को स्वयं जगाने की कशमकश होती है । मैं इसी रूप में अपने जागृत पक्ष को सुदृढ़ बनाकर अपनी ही आत्मा को उद्बोधन करना चाहता हूँ । यह उद्बोधन मैं करता हूँ अपने मन और अपनी इन्द्रियों का निग्रह करके । मन और इन्द्रियाँ मीठी मीठी नींद सोना चाहती हैं- मैं उन्हें सोने नहीं देता । मैं अपने आपको भी दुर्बलता के क्षणों में सावचेत करता हूँ और उठकर पढ़ने के लिए बैठ जाना चाहता हूँ। आत्मा की पढ़ाई बड़ी कठिन होती है तो बड़ी सरल भी । कठिन तो इस कारण कि मैं मन तथा इन्द्रियों का निग्रह कराने वाले तप में अपने सम्पूर्ण पुरुषार्थ को लगा नहीं पाता हूँ जिससे मन और इन्द्रियाँ बारबार छिटक कर नियंत्रण से बाहर चली जाती है, तब उनको वश में करना कठिन हो जाता है। और सरल - ३१३
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy