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________________ मैं परम प्रतापी और सर्वशक्तिमान् बनना चाहता हूँ—-आत्मा की शुभ शक्तियों का धनी, किन्तु वैसा परम प्रतापी और सर्वशक्तिमान् नहीं, जैसा कि एक राजा ने अपनी भौतिक शक्तियों के गर्व से उन्मत्त होकर अपने को परम प्रतापी और सर्वशक्तिमानू मान लिया था । कथा है कि एक राजा था— योद्धा और शूरवीर । उसने अपने प्राप्त राज्य को ही सुदृढ़ नहीं बनाया, बल्कि विश्व-विजयी बनने का संकल्प लिया । सौभाग्यशाली था सो आस-पास के राज्यों को जीतता हुआ आगे से आगे बढ़ता गया तथा अनेक राजाओं को अपनी अधीनता स्वीकृत कराता गया । उसकी विजय का डंका चारों ओर बजने लगा - वह महाराजाधिराज हो गया। उसने अपने आपको परम प्रतापी तथा सर्व शक्तिमान् घोषित कर दिया। उस समय एक भी राजा ऐसा नहीं बचा था जो उसकी इस घोषणा को चुनौती देता । उसकी सर्वशक्ति एक प्रकार से स्थापित हो गई। वह अभिमान में फूला नहीं समाता था । एक महात्मा को लगा कि इस राजा के विजयाभिमान को तोड़ना चाहिये। वे महात्मा वैक्रिय लब्धि के धारक तथा छोटे-बड़े रूप बना सकते थे। एक दिन वे उस राजा के दरबार में पहुँच गये। राजा ने उनका स्वागत किया, किन्तु गर्वभरी मुस्कान के साथ । महात्मा को वह व्यवहार अखर गया, फिर भी कुछ बोले नहीं । वे यह सब कुछ जानकर ही तो आये थे और एक वैद्य की तरह राजा के मान रोग की चिकित्सा करना चाहते थे । अनजान से बनकर कहने लगे – राजन्, मैंने सुना है कि तुम परम प्रतापी और सर्वशक्तिमान् हो ? राजा ने जोर का ठहाका लगाया और कहा – अरे महात्मा, तुमने सिर्फ सुना ही है, अब देखकर भी अनुमान नहीं लगा पा रहे हो क्या ? महात्मा राजा की आंखों में आंखें डालकर देखते ही रहे । उनकी इस हरकत से राजा असमञ्जस में पड़ गया, बोला – इस तरह क्या देख रहे हो, महात्मा ? महात्मा बोले – तुमने ही तो कहा है राजा की ओर देखो और मैं देख रहा हूँ । राजा धीरज नहीं रख सका, पूछने लगा- अब तो देख लिया न महात्मा और मिल गया न आपके प्रश्न का उत्तर आपको ? महात्मा ने 'हाँ' में सिर हिलाया, लेकिन फिर 'ना' में भी सिर हिलाया। अब तो राजा चौंका कि महात्मा आखिर कहना क्या चाहता है ? पूछ बैठा - आप का यह सिर हिलाना मुझे समझ में नहीं आया। तब गम्भीर वाणी में महात्मा बोले - राजन्, मैंने सुना था कि तुम परम प्रतापी और सर्वशक्तिमान् हो किन्तु आज देखने पर विपरीत अनुभव हो रहा है। राजा गरजा—आप कहना क्या चाहते हैं ? महात्मा कहने लगे – यही कि न तुम परम प्रतापी हो और न सर्व शक्तिमान् ! अपने आपको ऐसा समझने का तुम्हें मात्र दंभ है। क्रोध से फुफकार उठा राजा - मेरे सामने इस तरह बोल लेना आसान नहीं - इसे सिद्ध करो वरना यह झूठी जीभ काट कर फैंक दी जायेगी। अब महात्मा की हँसने की बारी थी, जोर से अट्टहास करके हँस पड़े और बोले- राजा, तुम सर्वशक्तिमान् हो, मुझे कुछ देने की शक्ति भी रखते हो ? राजा ने ओछेपन से कहा – मैं तो तुम्हें महात्मा समझा था, मात्र भिक्षुक ही निकले। जो कुछ मांगोगे मिलेगा किन्तु जीभ जरूर कटेगी । महात्मा फिर हंस पड़े, बोले- मुझे मात्र तीन पग भूमि चाहिये । राजा भी हंस पड़ा, कहने लगा- बस, मांगने में भी कृपणता, मैं तीन पग भूमि क्या तीन सौ गांव दे सकता हूँ । राजा का इतना था कि महात्मा ने विराट् रूप धारण किया और एक पग राजा के सम्पूर्ण राज्य के एक किनारे पर तो दूसरा पग राज्य के दूसरे किनारे पर रख कर पूछा- राजा, अब बताओ, तीसरा पग कहाँ रखूं ? राजा तो भौंचक्क खड़ा रहा-न बोलते बनता था और न हंसते । लज्जा से उसका सिर झुक गया । ३१२
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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