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________________ इसलिये कि यदि कठोर तप से मैं आत्म-जेता बन जाता हूँ तो मैं स्व-नियंत्रित शक्ति का धनी बन जाता हूँ। भाव-सरणियों में समुन्नति लाते हुए आत्म जेता बन जाना बड़ा सरल हो जाता है—जन्म जन्मान्तरों का भगीरथ कार्य कुछ ही क्षणों में सम्पन्न बन सकता है। प्रश्न यही है कि आत्मा को उद्बोधन कितनी उच्च और उत्कृष्ट भावना के साथ किया जाता है ? कपिल ब्राह्मण का रूपक मुझे याद आता है। अपने दारिद्रय से परम कटित होकर वह भूल से मध्यरात्रि में ही घर से निकल पड़ा कि राजा को प्रथम आशीर्वाद देकर वह एक स्वर्णमुद्रा प्राप्त करले। प्रहरियों ने उसे चोर समझकर पकड़ लिया और सुबह राजा के सामने प्रस्तुत किया । कपिल ने सच्ची-सच्ची बात बता दी। राजा खुश हो गया और बोला—जो चाहो सो मुझसे मांग लो। यकायक कपिल को कुछ नहीं सूझा सो सोचने का समय मांग कर पास के उद्यान में जाकर बैठ गया। तब कपिल सोचने लगा कि राजा से क्या मांगू? एक से एक हजार स्वर्ण मुद्रा तक बढ़ा, फिर भी सोचा कि निर्वाह में यह राशि भी एक दिन समाप्त हो जायेगी और फिर वही दारिद्रय भोगना पड़ेगा। तो फिर उसका पूरा राज्य ही क्यों न मांग लूं?.... इस बिन्दु पर पहुंचते ही उसकी आत्मा को एक झटका लगा और विचार-धारा एकदम परिवर्तित हो गई। कपिल सोचने लगा-मुझ सा अधम और कौन होगा, जो अपने ही सहायक को दर-दर का भिखारी बना देने की बात सोच बैठा ? धिक्कार है मुझे....और उसकी वह धिक्कार इतनी गहरी होती गई, भाव-सरणि उत्कृष्ट से उत्कृष्टतर व उत्कृष्टतम बन गई तथा आत्म शक्तियाँ सर्वोच्च शिखर पर पहुँचकर परम जागृत हो गई कि कपिल ब्राह्मण चन्द क्षणों में ही कपिल केवली (कैवल्यज्ञान प्राप्त) बन गया-जन्म जन्मान्तरों का विकास पलों में संध गया। यह अपेक्षिक कथन है आत्मोद्बोधन कभी-कभी इतनी मार्मिक और इतनी तत्क्षण सफलता भी प्राप्त कर लेता है। अतः मैं आत्मा को उद्बोधित करते समय अपनी भाव-गूढ़ता पर अधिक ध्यान देना चाहता हूँ। आन्तरिकता जितनी निष्पाप और निश्छल बन जाती है, आत्मा का उद्बोधन भी उतना ही प्रभावशाली हो जाता है। ऐसा भव्य उद्बोधन भी महान् तप रूप हो जाता है कि भावोद्वेग ही सम्पूर्ण कर्म संचय को विनष्ट कर देता है। भाव-श्रेणी की अत्युच्चता आत्मा को निष्कलुष बनाकर अल्पावधि में ही परम प्रतापी एवं सर्वशक्तिमान के पद पर प्रतिष्ठित कर देती है। मैं अपनी आत्मा को उद्बोधन करता हूँ मैं मुझको ही जगाता हूँ और चिन्तनशील बनाता हूँ कि मैं अपनी आत्मा के याने अपने बंधनों को कैसे तोड़ सकता हूँ तथा कैसे अपने मुक्ति के मार्ग को खोज सकता हूँ ? मैं अपने वर्तमान आत्म-स्वरूप का दृष्टा बनकर जब उसे निहारता हूँ तो अपने को-अपनी आत्मा को धिक्कारता हूँ कि कैसा मेरा मूल स्वरूप है परम प्रतापी तथा सर्व शक्तिमान् होने का और वर्तमान में वह कितना प्रताप शून्य एवं अशक्त बना हुआ है ? मैं अपने आपको बारबार धिक्कारता हूँ अपने विद्रूप पर और संकल्पित होता हूँ कि मैं अपनी आत्मा को उद्बोधन करूंगा, अपनी अपार शक्ति को समीक्षण ध्यान में लूंगा तथा आत्म-साक्षात्कार द्वारा साध्य की ओर त्वरित प्रगति के चरण बढ़ा चलूंगा। प्रताप और शक्ति की दिशा __मैं अपने आत्मस्वरूप के प्रताप तथा उसकी शक्ति की सही दिशा को पहले समझलूं -यह अति आवश्यक है। मैं सक्रिय बनूं और मेरी क्रियाशीलता की दिशा ही अगर गलत हो तो मेरी ३१४
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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