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________________ सूत्र सात मैं परम प्रतापी हूँ, सर्व शक्तिमान् हूँ। मेरा परम प्रताप और शक्ति केन्द्र वस्तुतः परमात्मा के समान ही है क्योंकि यह सिद्धान्त सर्वसत्य है कि आत्मा ही परम पद प्राप्त करके परमात्मा का स्वरूप वरण कर लेती है। परमात्मा कोई पृथक् शक्ति केन्द्र नहीं होता, वह आत्मा का ही परम विकसित स्वरूप होता है । मैं परम प्रतापी हूँ। मेरा ताप और प्रताप अनन्त क्योंकि वह तप से उद्भूत होता है और तप की परमोत्कृष्टता से अपार तेजस्विता ग्रहण करता है । जैसे मलयुक्त स्वर्ण अग्नि में तप कर शुद्ध ही नहीं बनता, अपितु अति मूल्यवान कुन्दन बन जाता है, उसी प्रकार आत्मा भी तप रूपी अग्नि में तप कर शुद्ध और निर्मल ही नहीं बनती, अपितु परम प्रतापी भी बन जाती है। मैं परम प्रतापी होता हूँ तो सर्व शक्तिमान् भी बन जाता हूँ, क्योंकि उस परम प्रताप से अनन्त शक्तियों एवं ऊर्जाओं का स्रोत प्रस्फुटित होता है । सर्व शक्तियों का प्रकाश उसके स्वरूप को परम प्रकाशित बना देता है। इतना ही नहीं, एक सत्य और भी प्रकट होता है। वह यह कि आत्मा स्वयं ही सर्वशक्तिमान और प्रकाशपुंज नहीं बनती, बल्कि शक्तियों का केन्द्र तथा प्रकाश का प्रसार स्रोत भी बन जाती है । मैं सर्व शक्तिमान् हूँ, सर्व शक्तियों का केन्द्र हूँ और प्रकाश का प्रसारक भी हूँ। जैसे एक पॉवर हाऊस होता है, जो स्वयं प्रकाशित होने के साथ साथ प्रकाश को सर्वत्र प्रकाशित भी करता है, उसी प्रकार मेरी आत्मा स्वयं प्रकाशित होकर उस प्रकाश शक्ति को विकरित प्रशारित भी करने लग जाती है। वह प्रकाश पाती है और सबमें प्रकाश भरती है – स्वयं सर्वशक्तिमान् बनती है तथा सर्वत्र शक्तियों का संचार करती है। जो कोई अन्य आत्मा परम प्रतापी तथा सर्वशक्तिमान् आत्मा के साथ लौ लगाती है, वह भी प्रकाशित बनती है— शक्तिशाली होती है। मैं परम प्रतापी हूँ, सर्व शक्तिमान् हूँ। यह परम प्रताप और शक्ति - सम्पन्नता मुझे मेरी शुभता के चरम विकास से मिलती है । विषय कषाय के विकार जब तप रूपी अग्नि में जल जाते हैं और उसके ताप आत्मस्वरूप निखर उठता है तब यह परम प्रताप प्रकट होता है – एकदम निर्मल, शान्त और सबको सुख देने वाला । यह परम प्रताप ही सर्व शक्तियों का केन्द्र स्थल हो जाता है, जहाँ सम्पूर्ण जीवों का हित तथा विश्व का कल्याण प्रस्फुटित होता है । आत्मा परमात्मा बन जाती है । मैं वही आत्मा हूँ— भव्य आत्मा, जो परमात्मा बन सकती है। परम प्रतापी और सर्व शक्तिमान् होने का मूल गुण मेरी आत्मा में भी निवास करता है और मेरे पुरुषार्थ से आज आवृत्त यह मूल गुण एक दिन सम्पूर्णतः अनावृत हो सकता है। आवश्यक है कि मैं वैसा पुरुषार्थ करूं, कठिन तप से आत्म स्वरूप के साथ बंधे आठों कर्मों को व शरीर के सात धातुओं को गला दूं तथा अपने जीवन को स्व- पर कल्याण में विसर्जित कर दूं । ३११
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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