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________________ विकृत हो जाता है तथा वह मूल्य विहीन बन कर सामूहिक यंत्रणा का कारण भूत हो जाता है। एक बांध में अणु जितना छेद भी जल्दी ही दरार का रूप ले लेता है और बांध को फोड़ देता है। मानवीय आचरण का भी यही हिसाब रहता है। बुराई बहुत जल्दी फैलती है और ज्यों-ज्यों एक से दूसरे मनुष्य के जीवन में पशुता व राक्षसी वृत्ति का विस्तार होता है, वह विस्तार पसरता ही जाता है। अतः मनुष्य के आचरण पर ऐसा नियंत्रण आवश्यक है कि पहले तो वह अपनी सीमाओं से बाहर निकल कर आक्रामक न बने और बाद में उसे मानवीय सद्गुणों तथा मूल्यों के सांचे में ढाला जाय कि न सिर्फ वह मानवता से विभूषित बने बल्कि देवत्त्व की दिव्यता का वरण करने के लिये भी अग्रगामी हो। इस रूप में मानवता की संरचना एक व्यक्तिगत ही नहीं, सामाजिक आवश्यकता भी है और इसी रूप में यह स्वयं सम्बन्धित मानव के साथ सम्पूर्ण समाज का दायित्व भी होगा। एक मानव अपने समुचित स्थान से तभी फिसलता है और अपने स्वाभाविक गुणों को भूलता व छोड़ता है जब उसके सामने अपने ही स्वार्थों को पूरा कर लेने का प्रलोभन होता है अथवा अपने प्राप्त स्वार्थों के कुचले जाने का भय। यों मनुष्य को सादगी से अपना जीवन-यापन करना बुरा नहीं लगता यदि वैसा समानता भरा अवसर सभी मनुष्यों के सामने हो, लेकिन जब सामाजिक परिस्थितियों में विषमता हो—कुछ लोग अत्यन्त विलासपूर्ण जीवन जीते हों और अत्याचार करके अथाह सत्ता और अखूट सम्पत्ति संचित करते हों तथा बहुत लोग मूल निर्वाह आवश्यकताओं से भी वंचित रहकर कष्टपूर्ण जीवन बिताते हों तथा ऊपर वालों के अत्याचारों को निरीह बन कर सह लेने को विवश हों। ऐसी विषमता में दोनों ओर पशुता भी पनपती है तो राक्षसी वृत्ति भी राहू बनकर सबको ग्रसित करती है। अतः मानव के दुष्ट प्रयासों पर कड़ा सामाजिक नियंत्रण एक अनिवार्य आवश्यकता बन जाती है। सामूहिक अनुशासन ही उदंड मानव की उद्दाम इच्छाओं पर कड़ा प्रतिबंध लगा सकता है। मानवता की संरचना के भगीरथ प्रयास में इन सभी परिस्थितियों का एक स्वस्थ आकलन होना चाहिये और सभी मोर्चों पर मानवता-विरोधी क्रिया-कलापों पर कड़ी रोक लगनी चाहिये। जैसे कर्म मुक्ति के लिये पहले आने वाले कर्मों पर रोक लगनी चाहिये, वैसे ही मानव समाज में पहले अमानवीय क्रिया-कलापों पर रोक लगनी चाहिये। संवर के बाद जैसे निर्जरा का क्रम लिया गया है, उसी रूप में फिर अस्तित्व में रहे हुए मानवताहीन मूल्यों से संघर्ष किया जाय और मानव की संशोधित वृत्तियों व प्रवृत्तियों तथा कठोर सामाजिक अनुशासन के साथ नये मानव का उदय किया जाय। तब मानव मूल्यों की धीरे-धीरे स्थिर प्रतिष्ठा हो जायगी। इसी प्रकार मानवता की संरचना संभव हो सकेगी। मानवता की संरचना रूप शुभ परिवर्तन का पराक्रम मुझे भी दिखाना होगा और मेरे साथ सभी प्रबुद्ध चेताओं को भी दिखाना होगा। यह कार्य एक संयुक्त दायित्व का रूप ग्रहण कर लेगा जिसका अपने जीवन के प्रति भी निर्वाह करना होगा तथा दूसरों के जीवन-परिवर्तन के प्रति भी निर्वाह करना होगा। इस दृष्टि से समाज में रहने वाले मानवों के स्वभाव या विभावगत भिन्न-भिन्न प्रकारों को समझ लेने की जरूरत है कि किस प्रकार के मानव का जीवन परिवर्तित करने के लिये किस प्रकार के प्रायोगिक पुरुषार्थ की आवश्यकता होगी? ३०१
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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