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________________ पड़ी थी जो आज के युग में भी अपना ली गई है। गण का प्रभुत्त्व उस समय की विशेषता थी क्योंकि तब तक राजतंत्र कर्त्तव्यहीन तथा अत्याचारी बन चुका था और जनता उससे विक्षुब्ध हो चुकी थी। उसी परिप्रेक्ष्य में व्यक्ति शासन के विरुद्ध गणों का प्रभाव प्रतिष्ठित हुआ तथा गणराज्य के माध्यम से लोकशासन का स्वरूप विकसित हुआ । यों भी समाज ऐसे समूह का नाम होता है जिसमें भांति-भांति के समूह सक्रिय होते हैं । ये समूह कभी क्षेत्रीय तो कभी भाषायी, जातीय या संस्कृति पर आधारित होते हैं। किन्तु जब तक ये समूह अपनी सीमाओं में रहकर स्वाभाविक गुणों के विकास में यत्नशील रहते हैं तब तक ये हानिप्रद नहीं बनते । (७) संघ धर्म - विचार एवं आचार की एकता के आधार पर जो नागरिक एकता - साध कर अपनी एक व्यवस्था बना लेते हैं, उसे संघ कहा जाता है तथा संघ की आचार पद्धति का नाम संघ धर्म है। उदाहरण के लिये जैन संघ को लिया जा सकता है जिसका नाम चतुर्विध संघ दिया गया है क्योंकि इस संघ में चार प्रकार के सदस्यों ने एक व्यवस्था का रूप दे रखा है। ये सदस्य हैं—– साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविका । संघ की दृष्टि से भी संघ सदस्यों को अपने गुणात्मक कर्त्तव्यों का निर्वाह करना होता है । (८) श्रुत धर्म - शास्त्रीय आज्ञा पद्धति को सामने रखकर व्यक्ति को आत्माभिमुखी बना कर ऊपर उठाने वाला यह धर्म उसे आध्यात्मिकता की अमित ऊँचाई तक ले जाने में सक्षम है। आत्म विकास की महायात्रा का प्रारम्भ इसी धर्माराधना की सहायता से सफलतापूर्वक किया जा सकता है। (६) चारित्र धर्म - यह श्रुत का आचरणात्मक पक्ष है। संचित कर्मों को इस धर्माराधना से रिक्त कर दिया जाता है। जिससे आत्मा निर्मल स्वरूपी बन जाती है । (१०) अस्तिकाय धर्म - अस्ति अर्थात् प्रदेशों की काय अर्थात् राशि को अस्तिकाय कहते हैं । काल के सिवाय पांच द्रव्य अस्तिकाय हैं। ये पांच द्रव्य हैं – धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय । इनके अपने-अपने स्वभाव को आस्तिकाय धर्म कहते हैं। जैसे धर्मास्तिकाय का स्वभाव जीव और पुद्गल को गति में सहायता देना है। इस रूप में ये दस धर्म धर्मनीति के व्यापक स्वरूप को प्रकाशित करने वाले हैं जिनके क्षेत्र में पूरा मानव समाज समाहित हो जाता है । मानव समाज का व्यवहार सम्पूर्ण जीवों को प्रभावित करता है अतः विभिन्न स्तरों पर यदि मनुष्य अपने धर्म-कर्त्तव्य का निर्वाह निष्ठापूर्वक करने लगे तो एक समतापूर्ण वातावरण का निर्माण हो सकता है। इस वातावरण की पुष्टि के साथ ही मानवता का नया स्वरूप भी प्रस्फुटित हो सकेगा । मानवता की संरचना मेरी दृष्टि में मूल प्रश्न यही है कि इस दुर्लभ मनुष्य तन में मनुष्यता का भी निवास हो । क्योंकि मानवताहीन मानव का कोई मूल्य नहीं रह जाता है न स्वयं उसके जीवन के लिये तथा न सामाजिक जीवन के लिये । एक मानव का जीवन मानवीय गुणों से रहित हो – यह एक बात लेकिन दूसरी बात उससे भी अधिक भयावह एवं घातक हो जाती है कि वह पशु बन जाय या उससे भी निकृष्ट राक्षस बन जाय । मनुष्य जीवन की ऐसी दुरावस्था में ही समाज का स्वरूप भी ३००
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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