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________________ (२) चारित्र धर्म कर्मों को नाश करने की चेष्टा को चारित्र धर्म कहते हैं। मूल गुणों व उत्तर गुणों के समूह का नाम भी चारित्र धर्म ही है। एक शब्द में इसे क्रिया रूप धर्म कहते है। इसके भी दो भेद हैं (अ) अगार चारित्र—अगारी-श्रावक के देश विरति धर्म को कहते हैं, व (ब) अनगार चारित्र—अनगार-साधु के सर्वविरति धर्म को कहते हैं। सर्वविरति रूप धर्म में तीन करण तीन योग से त्याग होता है। एक अपेक्षा से धर्म के तीन भेद भी किये गये हैं—(१) श्रुत (२) चारित्र और (३) अस्तिकाय (धर्मास्तिकाय आदि को अस्तिकाय कहते हैं।)। एक अन्य अपेक्षा से धर्माराधना के चार प्रकार भी बताये गये हैं जो एक प्रकार से आत्मा के स्वाभाविक गुण ही हैं (१) दान–स्व और पर के उपकार के लिये अर्थात् आवश्यकता वाले जीव को जो उसकी आवश्यकता के अनुसार दिया जाता है, उसको दान कहते हैं। दान कई प्रकार के होते हैं—धन-दान, वस्तुदान के अलावा अभयदान, सुपात्रदान, अनुकम्पादान, ज्ञानदान आदि। श्रेष्ठ दान देने में मुक्त हस्तता रखना दान धर्म का पालन कहा जाता है। दान के दस प्रकार—(अ) अनुकम्पादान किसी दुःखी, दीन, अनाथ प्राणी पर दया करके जो दान दिया जाता है, वह अनुकम्पादान है। (आ) संग्रह दान–संग्रह अर्थात् सहायता प्राप्त करना। आपत्ति आदि आने पर सहायता प्राप्त करने के लिये किसी को कुछ देना संग्रह दान है। यह दान अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिये होता है, इसलिये मोक्ष का कारण नहीं होता। (३) भयदान-राजा, मंत्री, पदाधिकारी आदि के भय से अथवा राक्षस, पिशाच आदि के डर से दिया जाने वाला दान भयदान कहलाता है। (ई) कारुण्य दान-पुत्र आदि के वियोग के कारण होने वाला शोक कारुण्य कहलाता है। शोक आदि के समय पुत्र आदि के नाम से दान देना कारुण्य दान कहलाता है। (उ) लज्जा दान–लज्जा के कारण दिया जाने वाला दान लज्जा दान है। जनसमूह के बीच में बैठे हुए किसी व्यक्ति से जब कोई आकर मांगने लगता है, उस समय मांगने वाले की बात रखने के लिये कुछ दे देने को लज्जादान कहते हैं। (ऊ) गौरव दान—यश कीर्ति या प्रशंसा प्राप्त करने के लिये गर्वपूर्वक दान देना । नट, नृत्यकार, पहलवान, सम्बन्धी या मित्र को यश प्राप्ति के लिये जो दान दिया जाता है, वह गौरव दान कहा जाता है। (ए) अधर्मदान—जो दान अधर्म की पुष्टि करने वाला होता है या जो अधर्म का कारण होता है। हिंसा, झूठ, चोरी, परदारगमन और आरंभ-समारंभ रूप परिग्रह में आसक्त लोगों को जो कुछ दिया जाता है, वह अधर्मदान है। (ऐ) धर्मदान-धर्म कार्यों में दिया गया अथवा धर्म का कारणभूत दान धर्मदान कहलाता है। जिनके लिये तृण, मणि और मोती एक समान हैं, ऐसे वीतराग-वाणी पर स्थिर सुपात्रों का जो दान दिया जाता है, वह धर्मदान होता है। ऐसा दान कभी व्यर्थ नहीं होता। इसके बराबर कोई दूसरा दान नहीं है। यह दान अनन्त सुख का कारण होता है। (ओ) करिष्यति दान – भविष्य में प्रत्युपकार की आशा से जो कुछ दिया जाता है, वह करिष्यति-दान है। (औ) कृत दान—पहले किये हुए उपकार के बदले में जो कुछ दिया जाता है, वह कृत दान है। इसे प्रत्युपकार दान भी कहते हैं। इन दस प्रकारों में शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के दान आ गये हैं। शुभ दान की दृष्टि से उसके चार प्रकार हैं : (अ) ज्ञानदान–ज्ञान पढ़ाना, पढ़ने और पढ़ाने वालों की सहायता करना आदि ज्ञानदान है। (ब) अभयदान–दुःखों से भयभीत जीवों को भय रहित करना अभयदान है। २६६
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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